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श्री गुणानुरागकुलकम् उपद्रव और हिंसादिक की वृद्धि होती है। इससे निषिद्धदेश और काल की मर्यादा का त्याग करने वाला मनुष्य सुखी होता है।
२३. 'जानन् बलाऽ बलं' - स्व पर का बल और अबल जानने वाला गृहस्थ धर्म के लायक है। बल की परीक्षा किये बिना कार्य का प्रारंभ करना निष्फल है और जो बल तथा अबल का ज्ञान कर कार्य करते हैं, उनका कार्य सफल होता है। बलवान् व्यायाम करे, तो उसका शरीर पुष्ट होता है और निर्बल मनुष्य व्यायाम करेगा, तो उसकी शरीर सम्पत्ति का नाश होगा, क्योंकि शारीरिक शक्ति के उपरांत परिश्रम करने से शरीराऽवयवों को नुकसान पहुँचता है। अतएव बल के प्रमाण में कार्यारम्भ करना चाहिये, जिससे चित्तव्याकुलता न हो सके और स्वच्छ चित्त से सद्गुण प्राप्ति हो।
२४. व्रतस्थज्ञानवृद्धानां पूजकः - व्रती और ज्ञानवृद्ध पुरुषों की सेवा करने वाला गुणी बनता है। अनाचार त्याग और सदाचार का पालन करने में जो स्थित है, वह 'व्रतस्थ' और जो हेय उपादेय वस्तुओं का निश्चय करने वाले ज्ञान से संयुक्त हो वह 'ज्ञानवृद्ध' कहलाता है। इन दोनों की सेवा कल्पवृक्ष के समान महाफल को देने वाली होती है व्रती पुरुषों की सेवा से व्रत का उदय और ज्ञान वृद्धों की सेवा से वस्तु धर्म का परिचय होता है। इसलिये व्रती और ज्ञान वृद्धों को वन्दन करना तथा उनके आने पर (अभ्युत्थान) खड़े होना आदि बहुमान करना चाहिये।
२५. पोष्यपोषकः - पोषण करने योग्य माता, पिता, भाई, बहिन, स्त्री, पुत्र आदि परिवार को योगक्षेम से अर्थात् अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति और प्राप्त वस्तु की रक्षा करता हुआ पोषण करना चाहिये, जिससे कि लोक व्यवहार में बाधा न पड़े। लोक व्यवहार की बाधा