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श्री गुणानुरागकुलकम् - भावार्थ - हे रथनेमि ! मैं उग्रसेन राजा की पुत्री हूँ और तू समुद्रविजय राजा का पुत्र है, इससे ऐसे प्रशस्तकुल में उत्पन्न हो विषसदृश वान्त विषयरस . का पानकर स्व स्व उत्तम कुल के विषे गंधनजाति के सर्पसमान नहीं होना चाहिये, अतएव मन को स्थिर कर संजम को आचरण कर, अर्थात् निर्दोष चारित्र पालन कर। जइ तं काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारिओ। वायाविद्ध व्व हडो, अद्विअप्पा भविस्ससि ॥९॥ .
भावार्थ - तू जिन-जिन स्त्रियों को देखेगा, उन्हीं स्त्रियों के विषय में 'यह सुन्दर है, यह अति सुन्दर है' इस वास्ते इसके साथ काम-विलास करूँगा, . इस प्रकार के भावों को जो करेगा, तो पवन से ताड़ित नदीजलोपरिस्थिति हड नामक वनस्पति के समान अस्थिरात्मा होगा, अर्थात् संयम में जिसकी आत्मा स्थिर नहीं है, उसको प्रमादरूप पवन से ताड़ित हो संसार में अनन्तकाल तक . इधर-उधर अवश्य घूमना पड़ेगा।
संयती राजीमती के वैराग्यजनक सुभाषित वचनों को सुनकर 'रथनेमि' ने अंकुश से जैसे हस्ती स्वभाव स्थित होता है, वैसे ही विषयों से जीवित पर्यन्त विरक्त हो संयमधर्म में अपनी आत्मा को स्थिर किया।
__यहाँ पर यह शंका अवश्य होगी कि जो चारित्र लेकर विषयाभिलाषी होवे, और फिर भ्रातृपत्नी के साथ कामसेवन की इच्छा रक्खे, सो नितांत अनुचित है, अतएव उसको पुरुषोत्तम कहना ठीक नहीं है ? __इसका समाधान टीकाकार महर्षियों ने ऐसा किया है कि - कर्म की विचित्रता से रथनेमि को विषय अभिलाषा तो हुई, परन्तु उसने इच्छा रूप विषयों को सेवन नहीं किया, परन्तु राजीमती के