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श्री गुणानुरागकुलकम्
असन्तो नाभ्यर्थ्याः सुहृदपि न याच्यस्तनुधनः, सतां केनोद्दिष्टम विषममसिधारावतमिदम् ?" ॥१॥
भावार्थ - विपत्ति समय में ऊँचे प्रकार की स्थिरता रखना, महापुरुषों के मार्ग का अनुकरण करना, न्याययुक्त वृत्ति को प्रिय कर समझना, प्राणावसान में भी अकार्य नहीं करना, दुर्जनों से प्रार्थना और अल्पधनी मित्र से याचना नहीं करना, इस प्रकार असिधारा के समान दुर्घट सत्पुरुषों का व्रत किसने कहा? अर्थात् सत्यवक्ता और तत्त्ववेत्ताओं ने प्रकाशित किया है, अतएव मनुष्यों को शिष्टाचार प्रशंसक अवश्य बनना चाहिये।
३. "कुलशीलसमैः सार्ध, कृतोद्वाहोऽन्यगोत्रजैः" - जिनका कुल शील समान हो और भिन्न गोत्र हो, उनके साथ विवाह करना। कुल-पिता, पितामहादि पूर्ववंश और शील-मद्य, माँस निशिभोजन आदि का त्याग।
पूर्वोक्त कुल और शील समान होय तो स्त्री-पुरुषों को धर्म साधन में अनुकूलता होती है, परन्तु जो शील की समानता न हो, तो नित्य कलह होने की संभावना है। उत्तम कल की कन्या लघ कुल वाले पुरुष को दबाया करती है और नित्य धमकी दिया करती है कि मैं पीहर चली जाऊँगी। अगर नीच कुल की कन्या हुई तो पतिव्रतादि धर्म में बाधा पड़ने का भय रहता है। इसी तरह शील में भिन्नता होने से प्रत्यक्ष धर्म साधन में हानि दिख पड़ती है, क्योंकि एक तो मद्यपान, माँसाहार अथवा रात्रि भोजन करने वाला है और दूसरे को उस पर अप्रीति है, ऐसी दशा में परस्पर प्रेमभाव कहाँ से बढ़ सकता और सांसारिक सुख का आनन्द कहाँ से आ सकता है? अतएव समान कुल और शील की परमावश्यकता है, इसी से दम्पत्ति प्रेम अभिवर्द्धित हो सकता है।