________________
१७१
श्री गुणानुरागकुलकम्
"कृतसङगः सदाचारै - र्मातापित्रोश्च पूजकः । त्यजंन्नुपप्लुस्थान - मप्रवृत्तश्च गर्हिते ॥४॥" ____ भावार्थ - ८. - उत्तम आचार वाले सत्पुरुषों का समागम करना, अर्थात् सामान्यतः जुआरी, धूर्त, दुराचारी, भट्ट, याचक, भांड, नट और धोबी, माली, कुंभार प्रमुख की संगति धर्मिष्ठ पुरुष को अहित कारक है। आजकल कई एक वेषधारी साधु और साध्वियाँ नीच जाति के मनुष्यों को साथ में रखते हैं, जिससे उसका अंतिम परिणाम भयङ्कर निवड़ता है। इसी प्रकार गृहस्थों को भी जब अधम मनुष्यों की संगति करना मना है, तो फिर साधुओं के लिए तो कहना ही क्या है ? नीच पुरुषों की सोबित करने वाले
और साधुओं का अनादर असत्कार करने वाले गृहस्थ भी पाप के पोषक हैं, इसी से शास्त्रकार कहते हैं कि सत्संग करने वाला पुरुष धर्म के योग्य होता
९. 'मातापितोश्च पूजकः' - माता-पिताओं की पूजा करने वाला गृहस्थ धर्म के योग्य हैं, अर्थात् संसार में माता-पिताओं का उपकार सबसे अधिक है, अतएव उनकी सेवा तन, मन और धन से करना चाहिये, क्योंकि दश उपाध्याय की अपेक्षा एक आचार्य, सौ आचार्य की अपेक्षा एक पिता और हजार पिता की अपेक्षा एक माता पूज्य है। इसलिये हर एक कार्य में माता-पिताओं की रुचि के अनुसार वर्त्तनेवाला पुरुष सद्गुणी बन सकता है।
१०. 'त्यंजन्नुपप्लुतस्थानम्' - उपद्रव वाले स्थान का त्याग करने वाला पुरुष धर्म के लायक होता है। इससे स्वचक्रादि परचक्रादि उपद्रव तथा दुर्भिक्ष प्लेग, मारी आदि और जनविरोध आदि से रहित स्थान में रहना चाहिये। उपद्रवयुक्त स्थान में रहने से अकाल मृत्यु, धर्म और अर्थ का नाश होने की संभावना है और धर्म साधन भी बनना कठिन है।