________________
१७०
श्री गुणानुरागकुलकम् होता है। सामान्य पुरुषों की निन्दा से भी नरकादि कुगतियों की प्राप्ति होती है, तो उत्तम पुरुषों की निन्दा दुःखदायक हो, इसमें कहना ही क्या है ? राजा, अमात्य, पुरोहित आदि की निन्दा तो बिलकुल त्याज्य ही है, ठीक ही है कि इनकी निन्दा करने से तो प्रत्यक्ष द्रव्यनाश, प्राणनाश और लोक विडम्बना होती देख पड़ती है, अतः किसी का अवर्णवाद न बोलना चाहिये, अगर निन्दा करने का ही अभ्यास हो, तो अपने दुष्कृतों की निन्दा करना सर्वोत्तम और लाभदायक है। "अनतकिव्यक्तगुप्ते च, स्थाने सुप्रातिवेश्मिकः । अनेक निर्गमद्वार - विवर्जितनिकेतनः ॥३॥" .
भावार्थ - ७. - अनेक द्वारों से रहित घरवाला गृहस्थ सुखी रहता है। अनेक द्वारों के निषेध से परिमित द्वार वाले घर में रहने का निश्चय होता है, क्योंकि ऐसे घरों में निवास करने से चौरादि का भय नहीं रह सकता। यदि घर में अनेक द्वार हों, तो दुष्ट लोगों के उपद्रव होने की संभावना है तथा अतिव्यक्त और अतिगुप्त भी न होना चाहिये। जो अतिव्यक्त घर होगा, तो चोरों का उपद्रव होगा, यदि अतिगुप्त होगा, तो घर की शोभा मारी जायगी और अग्नि वगैरह के उपद्रव से घर को नुकसान पहुँचेगा। . .
जहाँ सज्जन लोगों का पड़ोस हो, वहाँ रहना चाहिये। सज्जनों के पड़ोस में रहने से स्त्री-पुत्रादिकों के आचार-विचार सुधरते हैं और धीरे-धीरे वह मनुष्य आदर्श (सज्जन) की गिनती में आ जाता है। कनिष्ठ पड़ोसियों की संगति से संतति के आचार-विचार बिगड़ जाते हैं और लोक निन्दा का पात्र बनना पड़ता है। अतएव गृहस्थों के लिए अनतिव्यक्त, अगुप्त, उत्तम पड़ोस वाला और अनेक द्वारों से रहित घर श्रेष्ठ और सुखकारक होता है।