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श्री गुणानुरागकुलकम्
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अजीर्ण होने पर भी लालच से खाते हैं, वे अपने सुखमय जीवन को नष्ट करते हैं। अजीर्ण की परीक्षा करने के लिए शास्त्रों में इस प्रकार लिखा है कि -
मलवातयोर्विगन्धो, विड्भेदो गात्रगोरवमरुच्यम् । अविशुद्धश्चोद्गारः, षडजीर्णव्यक्तलिङ्गानि ॥ १ ॥
भावार्थ - मल और वायु में दुर्गन्धि हो जाना, दस्त (पाखाने) में नित्य के नियम से कुछ फेरफार हो जाना, शरीर में आलस आना, पेट का फूलना, भोजन पर रुचि कम होना और गंधीलि डकार आना; अजीर्ण होने के ये छह चिह्न स्पष्ट होते हैं।
उक्त छह कारणों में से यदि एक भी कारण मालूम पड़े, तो भोजन अवश्य छोड़ देना चाहिये, क्योंकि ऐसे अवसर में भोजन छोड़ने से जठराग्नि के विकार भस्म होते हैं। धर्मशास्त्र भी पखवाड़े में एक उपवास करने की सूचना करते हैं। यदि भोजनादि व्यवस्था नियम से की जाय, तो प्रायः प्रकृति विकृति के कारण रोग होना असंभव है। कर्मजन्य रोगों को मिटाने के लिए तो कोई उपाय ही नहीं है। वर्तमान समय में कई एक मनुष्य उपवास की जगह जुलाब लेना ठीक समझते हैं; लेकिन यथार्थ विचार किया जाय, तो 'जुलाब लेना उभय लोक में हानिकारक है। जुलाब लेने से प्रकृति में फेरफार होता है, किसी किसी वक्त तो वायु प्रकोप हो जाने से जुलाब में भारी हानि पहुँचती है और शरीर स्थित क्रमी का नाश होता है, इत्यादि कारणों से जुलाब उभयलोक में दुःखदायक है।
उपवास पखवाड़े में खाये हुए अन्न को पचाता है, मन को निर्मल रखता है, विकारों को मंद करता है, अन्न पर रुचि बढ़ाता है और रोगों का नाश करता है। अतएव जुलाब की अपेक्षा उपवास