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श्री गुणानुरागकुलकम् ११. 'अप्रवृत्तिश्च गर्हिते' - अर्थात् निन्दनीय कर्म में प्रवृत्ति नहीं करना चाहिये। देश, जाति और कुल की अपेक्षा से निन्दनीय कर्म तीन प्रकार का होता है - जैसे सौ वीरदेश में कृषि कर्म, लाट में मद्यपान निन्दनीय है। जाति की अपेक्षा से ब्राह्मणों को सुरापान, तिल लवणाऽऽदि का व्यापार और कुल की अपेक्षा से चौलुक्य वंशी राजाओं को मध्य-पानादि निन्दनीय है। इत्यादि निन्दनीय कार्य करने वाले पुरुषों के धर्मकार्य हास्याऽऽस्पद होते हैं, अतएव ऐसे कार्यों में प्रवृत्ति करना अनुचित है। "व्यायामोचितं कुर्वन्, वेषं वित्तानुसारतः। अष्टभिर्धीगुणैर्युक्तः, श्रृण्वानो धर्ममन्वहम् ॥५॥" ___ भावार्थ - १२. आमदानी के अनुसार खर्च करना, अधिक अथवा : न्यून खर्च करने से व्यवहार में प्रामाणिकता नहीं समझी जाती, क्योंकि अधिक खर्चा करने से मनुष्य ‘फूलणजी' की और न्यून खर्चा करने से ‘मम्मण' की क्ति में गिना जाता है। अतएव कुटुम्बपोषण में, अपने उपयोग में देवपूजा और अतिथि सत्कार आदि में आमदानी-प्रमाणे समयोचित द्रव्य व्यय करना चाहिये। शास्त्रकारों ने द्रव्य व्यवस्था के विषय में लिखा है कि
"पादमायान्निधिं कुर्यात्, पादं वित्ताय घट्टयेत् । धर्मोपभोगयोः पादं, पादं भर्त्तव्यपोषणे ॥१॥" .
___ भावार्थ - आमदानी का चतुर्थांश भंडार में रखना, चौथा भाग व्यापार में, चौथा भाग धर्म तथा उपभोग में और चौथा भाग पोषणीय कुटुम्ब वर्ग में लगाना चाहिये अथवा - 'आयादधं नियुञ्जीत, धर्मे समधिकं पुनः । शेषेण शेषं कुर्वीत, यत्नतस्तुच्छमैहिकम् ॥२॥" ।