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श्री गुणानुरागकुलकम् मछलियों के तो दो-चार आने मुश्किल से मिलेंगे, हाल मछलियाँ मरी नहीं है, तो इतना पुण्यदाता को ही हो। ऐसा समझकर मच्छीमार जलाशय में मछलियों को छोड़ आया और बाजार में आकर सोनामोहर के पन्द्रह रुपया लिये, उसमें से एक रुपया का ज्वार, बाजरी वगैरह धान्य लेकर घर आया।
इसे देखकर लड़के और स्त्री विचार में पड़े, देखो निरन्तर यह बारह बजे घर आता था और थोड़ा-सा धान्य लाता था, आज तो विकसित-वदन हो, बहुत धान्य लेकर जल्दी आया है। इस प्रकार मन में ही विचार कर उस धान्य को सबने कच्चा ही फाकना शुरू कर दिया, उसका असर होते ही स्त्री ने कहा कि - आज इतना ध्यान कहाँ से लाये?
मच्छीमार ने कहा कि - एक धर्मात्मा ने मुझको सोना मोहर बिना माँगे ही दी थी उसको बटाकर एक रुपये का तो धान्य लाया हूँ और चौदह रुपये मेरे पास हैं। उनको देख कर लड़के और स्त्री ने कहा कि अब दो महीना की खरची तो अपने पास मौजूदा है, तो रात्रि में तालाब पर जाना और निरपराधी जन्तुओं का नाश करना यह नीच कर्म करना ठीक नहीं है। इससे तो मजूरी करना सर्वोत्तम है। सभी ने ऐसा विचार किया और मच्छीमारों का मुहल्ला छोड़कर साहूकारों के पड़ोस में जा बसे। इस तरह यावज्जीवन पर्यन्त नीचकर्म से विरक्त हो, आनन्दपूर्वक मजूरी से अपना निर्वाह करने लगे।
इसी तरह दूसरा मनुष्य राजा की सोना मोहर लेकर एक ध्यानस्थ योगी के पास आया और उसे धर्मात्मा तपस्वी जानकर मोहर उसके सामने रख दी और किसी वृक्ष के नीचे बैठकर उसकी व्यवस्था देखने लगा।