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श्री गुणानुरागकुलकम् दोसदंसी, जो दोसदंसी सो मोहदंसी, जो मोहदंसी से गब्मदंसी, जे गब्भदंसी से जम्मदंसी, जे जम्मदंसी से मारदंसी, जे मारदंसी से णिरयदंसी, जे णिरयदंसी से तिरियदंसी, जे तिरियदंसी से दुक्खदंसी।
भावार्थ - जो क्रोध छोड़ता है वह मान को छोड़ता है, जो मान को छोड़ता है वह माया को छोड़ता है, जो माया को छोड़ता है वह लोभ को छोड़ता है, जो लोभ को छोड़ता है वह प्रेम (राग) को छोड़ता है, जो प्रेम को छोड़ता है वह द्वेष को छोड़ता है, जो द्वेष को छोड़ता है वह मोह को छोड़ता है, जो मोह को छोड़ता है, वह गर्भवास से मुक्त होता है, जो गर्भ से मुक्त होता है, वह जन्म से मुक्त होता है, जो जन्म से मुक्त होता है वंह मरण से मुक्त होता है, जो मरण से मुक्त होता है वह नरक गति से मुक्त होता है, जो नरक गति से मुक्त होता है वह तिर्यञ्जगति से मुक्त होता है, और जो तिर्यञ्चगति से मुक्त होता है वह सब दुःखों से मुक्त होता है।
सूत्रकार का यह कथन सर्वमान्य हेतुगम्य और प्रशंसनीय है। जिसने क्रोध को जीत लिया है और शान्तता धारण कर ली है उनके दूसरे दुर्गुण क्रमशः आप ही नष्ट हो जाते हैं, फिर उन की आत्मा कर्ममल रहित हो अनन्त सुख विलासी बन जाती है। इसीलिए -
से मेहावी अभिनिवडेज्जा कोहं च माणं च मायं च लोहं च पेज्जं च दोसं च मोहं च गब्भं च जम्मं च मरणं च तिरियं च दुक्खं च; एयं पासगस्स दंसणं उवरयसत्थस्स पलियंतकारस्स। .
भावार्थ - इस प्रकार बुद्धिशाली महानुभावों को अनेक सद्गुणों के घातक क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम, द्वेष, मोह आदि दोषों को दूर कर गर्भ, जन्म, मरण, नरक और तिर्यञ्चगति आदि के दुःखों से बचना चाहिए; यह तत्त्वदर्शी शस्त्रत्यागी संसारान्तकर्ता भगवान् महावीर स्वामी का सर्वमान्य दर्शन रूप उपदेश है।