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श्री गुणानुरागकुलकम् भावार्थ - संसार में मेरी कीर्ति फैले, अर्थात् सब जगह मेरी प्रतिष्ठा बढ़े, सब लोग मेरी निरन्तर स्तुति करते रहें और सब कार्यों में मेरी सफलता होवे इत्यादि आशा करने का नाम 'लौकेषणा' है। अच्छे अच्छे गुणवान कुलवान, रूपलावण्यादिसम्पन्न पुत्र पुत्री व शिष्य हों इत्यादि विचारने का नाम 'पुत्रैषणा' है २. और नाना प्रकार की संपत्तियाँ मुझे प्राप्त हों, और मैं धन से सब जगह प्रसिद्ध होऊँ, इत्यादि बांछा रखने का नाम 'वित्तैषणा' है। इन तीन एषणाओं को छोड़ कर मुमुक्षु लोग संन्यास अर्थात् योगाभ्यास का अवलम्बन लेते हैं।
कषायों के संयोग से ही उत्पन्न होते हैं। देखिए कषायों के आवेश में ही मनुष्यादि प्राणी युद्ध करते हैं और सम, विषम और . भयंकर स्थानों में गमन करते हैं, तथा अनेक सम्बन्ध जोड़ते हैं, एवं राज्यादि समृद्धि का संग्रह करते हैं और परस्पर एक दूसरे के साथ : मात्सर्यभाव रखते हैं, इसी प्रकार गुणीजनों की निन्दा, धर्म की अवहेलना और असत्यमार्ग का आचरण करते हैं, तथा परस्पर बैर विरोध बढ़ाते हुए परस्पर एक दूसरे को बिना कारण कलङ्कित करते हैं, इत्यादि अनेक दुर्गुण कषायों के संयोग से आचरण करना पड़ते हैं, जिससे किया हुआ धर्मानुष्ठान भी निष्फल हो जाता है, और तज्जन्य फलों का अनुभव भी विवश होकर भोगना पड़ता है। इसी कारण से कषायसम्पन्न मनुष्यों की पालन की हुई संयम क्रिया भी सफल नहीं होती, किन्तु प्रत्युत उसका फल नष्ट हो जाता है। लिखा है कि - जं अज्जियं चरितं, देसूणाए अ पुवकोडीए। तं पि कसायपमत्तो, हारेइ नरो मुहुत्तेणं ॥१॥
भावार्थ - देशोन पूर्वक्रोड वर्ष पर्यन्त पालन किए हुए चारित्रगुण को मनुष्य कषायों से प्रमत्त होकर अन्तर्मुहूर्त मात्र में हार जाता है।