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श्री गुणानुरागकुलकम् में दोष समझते हैं वे दिग्मूढ़ और भवाभिनन्दी हैं, उनका भला नहीं हुआ और न होगा। इससे कारण की बातों को धूममार्ग में कभी नहीं लेना चाहिए, उत्सर्ग से तो सकल शास्त्रों ने मायास्थान सेवन करने का निषेध ही किया है। इससे जो स्गुणी बनना हो, और आत्म निस्तार करना हो तो माया का सर्वथा त्याग करो, क्योंकि हर एक गुण की प्राप्ति निष्कपटभाव के बिना नहीं हो सकती। . लोभ और उसका त्याग -
अज्ञान रूप विषवृक्ष का मूल, सुकृतरूप समुद्र को शोषण करने में अगस्त्य ऋषि के समान, क्रोधानल को प्रदीप्त करने में अरणिकाष्ठ के समान, प्रतापरूप सूर्य को ढाँकने में मेघसमान, क्लेशों का भवन, विवेकरूप चन्द्रमा का ग्रास करने में राहु के समान, आपत्तिरूप नदियों का समुद्र, कीर्तिरूष लता का विनाश करने में उन्मत्त हस्ति के समान लोभ है। क्रोध से प्रीति का, मान से विनय का, माया से मित्रता का, और लोभ से प्रीति, विनय, मित्रता आदि सब सगुणों का नाश होता है। सब दर्शनकारों का यही मन्तव्य है कि लोभ से लाभ कुछ नहीं है प्रत्युत हानि तो अवश्य ही होती है। लोभ का यह स्वभाव ही है कि ज्यों-ज्यों अधिक लाभ हुआ करता है त्यों त्यों उसका वेग अधिकाधिक बढ़ा करता है, और उस लोभ के नशे में आपत्तियाँ भी संपत्तिरूप जान पड़ती है। लोभी मनुष्य की इच्छा अपरिमित होती है जिसका अन्त ब्रह्मा भी नहीं पा पकता। सब समुद्रों में स्वयंभुरमण असंख्येय योजन प्रमाण का गिना ताता है, उसका पार मनुष्य किसी काल में नहीं पा सकता, परन्तु कसी देव की सहाय मिल जाए तो उसका भी पार करना कोई पारी बात नहीं है, लेकिन हजारों देवेन्द्रों का सहाय प्राप्त होने पर