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श्री गुणानुरागकुलकम् भावार्थ - यदि सन्त समागम में निरत होगे, तो इस लोक में सुख प्राप्त कर अन्त में परमपद के अधिकारी बनोगे, यदि दुर्जन के सहचारी बनोगे,. तो नीचे ही गिर जाओगे। जिस प्रकार काँच काञ्चन के संसर्ग से मुक्ताफल की छवि को धारण करता है, उसी प्रकार सत्संग से मूर्ख भी प्रवीण (बुद्धिमान्) हो जाता है।
सत्संगति ही वाणो में सत्यता का प्रादुर्भाव करती है, और यही विद्वज्जनों में मानप्रदायिनी तथा पापप्रणाशिनी, शोकादि को दूर कर चित्त प्रसन्न करने वाली और निखिल दिशाओं में यश कीर्ति फैलाने वाली है। जिस देश में सत्संगति का प्रचार है। उसः देश में सदैव सुख-शांति तथा एकता की धारा मंदाकिनी (स्वर्गगंगा) की धारा के समान आनन्द की लहरें लेती हुई बहा करती हैं और उस देश के वासी स्वप्न में भी दुःख के भागी नहीं होते और उस देश की उन्नति को देख देव, गंधर्व, किन्नर आदि आकाश में विराजमान हो कीर्ति का गान किया करते हैं। जिस देश के पुरुष सज्जन पुरुषों के अनुकूल नहीं चलते या जिस देश में सज्जन पुरुषों का आदर नहीं है, अथवा जिस देश में सज्जन पुरुषों का वास नहीं है, उस देश को जड़ता, द्वेष, कलह, अशांति आदि दोष शीघ्र ही नष्ट कर देते हैं। परस्पर क्रोध बढ़ जाने से भ्राता भ्राता में, पुत्र पिता में, माता पुत्र में, भगिनी भ्राता में, पति पत्नी में लड़ाई उत्पन्न होकर उस देश, उस कुल और उस जाति का बहुत शीघ्र ही नाश हो जाता है।
इसलिये महानुभावो ! यदि अपना, अपने धर्म, देश और जाति का अभ्युदय करना चाहते हो, तो असत्संग से दूर होने का उपाय तथा सज्जन पुरुषों की आज्ञा पालन और उनका आदर करना सीखो। जब तक सत्संग नहीं किया जायगा, तब तक अभ्युदय की अभिलाषा करना मृगतृष्णा के समान है। कहा भी है कि -