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श्री गुणानुरागकुलकम् लक्ष्य जीव योनि में अनेक असह्य दुःखों का अनुभव करना पड़े उसका नाम कषाय है। कष - अर्थात् क्लेषों का जिससे आय-लाभ . हो सो 'कषाय' कहलाता है। जिस प्रकार अग्नि अपने अनुरूप संयोग को पा कर प्रदीप्त हुआ करती है, उसी प्रकार कषाय भी अपने अनुरूप संयोगों को प्राप्त कर प्रज्ज्वलित हो उठते हैं और उत्तम गुणों का घात कर डालते हैं। कषाय चार हैं - क्रोध १, मान २, माया ३.
और लोभ ४। इन चार कषायों के विषय में शास्त्रकारों ने बहुत कुछ उपदेश दिया है, परन्तु यहाँ पर उसका दिग्दर्शन मात्र कराया जाता
क्रोध और उसका त्याग - | . ___ अनेक अनर्थों का कारण, बोधिवीज कां घातक, दुरितों का पक्षपाती, नरक भवन का द्वार, और चारित्र धर्म का बाधक क्रोध है। कोटि वर्ष पर्यन्त की हुई तपस्या इसी क्रोध के प्रसंग से नष्ट हो जाती है, अतएव इसको शान्त करने का ही उपाय करते रहना चाहिए, क्योंकि क्रोध प्राणी मात्र में परिताप उपजाने वाला है। कहा है कि
सवैया २३ सा
रीस सुं जहेर उद्वेग बढ़े अरू, रीस सुं शीश फूटे तिन ही को। रीससे मित्र भी दाँत को पीसत, आवत मानुष नाहिं कहीं को॥ रीस सुं दीसत दुर्गति के दुख,