________________
श्री गुणानुरागकुलकम्
चीस करत तहाँ दिन हिं को । यों 'धर्मसिंह' कहे निशदीह
९९
करे नहिं रीस सोही नर नीको ॥ १ ॥
भावार्थ - क्रोध करने से एक दूसरों के ऊपर जहर - कुत्सित (खोटें) घाट मढ़ने के विचार करने पड़ते हैं और अनेक उद्वेग (मानसिक क्लेश) खड़े होते हैं, सैकड़ों लोगों के साथ वैर विरोध और माथा कूट ( बकवाद) करना पड़ती है, क्रोधावेश में मनुष्य विश्वासी पर भी अप्रियता पूर्वक दाँत कड़कड़ाता है, और क्रोधी जानकर पाहुना तरीके भी कोई उसके पास नहीं आता, न उसकी कोई यथार्थ सार संभाल कर सकता है। क्रोध के प्रभाव से ही आखिर खोटी गति में पढ़कर नाना प्रकार के बध बन्धनाधि दुःख देखना पड़ते हैं, इसलिए सज्जनों को उचित है कि क्रोध के वशवर्ती न हों। क्योंकि जो महानुभाव क्रोध नहीं करते संसार में वे ही उत्तम, और सन्मार्गानुगामी हैं ।
तिच्छन क्रोध से होय विरोधऽरु,
क्रोध से बोध की शोध न होई । क्रोध से पावे अधोगति जाल को,
क्रोध चंडाल कहे सब कोई ॥ क्रोध से गालि कही वढ़िबेढऽरू,
क्रोध से सज्जन दुर्जन हो ।
यहे 'धर्मसिंह' कहे निशदीह,
सुनो भैया क्रोध करो मत कोई ॥२॥
भावार्थ - अत्यन्त क्रोध करने से लोगों के साथ वैरभाव बढ़ता है
और यशः कीर्ति का सत्यानाश हो जाता है, क्रोध के समागम से सद्ज्ञान व