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श्री गुणानुरागकुलकम् अपने को जो सामर्थ्य याने पराक्रम मिला है उसकी प्रशंसा करे और दूसरों को घासफूस के समान समझे। ४ रूपमद - सर्वाङ्ग सुन्दर सुरम्य रूप पाकर मनमें समझे कि मेरे समान संसार में रूपसौभाग्य दूसरे किसी को नहीं मिला है। ५ ज्ञानमद - अनेक प्रकार की विद्याओं को सीख कर, या षट्दर्शनों के सिद्धान्तों का पारगामी होकर मन में विचारे कि - मेरा पराजय कौन कर सकता है, मैंने सब पंडित .. समूहों का मद उतार दिया है, मेरे सामने सब लोग बेवकूफ (मूर्ख) है)। ६ लाभमद - मेरे समान भाग्यशाली कोई भी नहीं है, मैं खोटा. भी कार्य उठाता हूँ तो उसमें लाभ ही मिलता है। ७ तपमद् - संसार में मेरी की हुई तपस्या के समान दूसरा कोई नहीं कर सकता, मैं महातपस्वी हूँ, देखो! तपस्या की उत्तमता से लोग मुझे खूब बाँदते,
और पूजते हैं। ऐसा दूसरों को कोई नहीं मानता इसलिए मैं ही महातपोधन हूँ। ८ ऐश्वर्यमद - ठकुराई व संपत्ति या किसी ओहदे पर आरूढ़ होकर घमंडी बन जाना, और दूसरे किसी की आज्ञा नहीं मानना, गद्दी का गध हा बना रहना, दूसरों की और अपने पूज्य लोगों की प्रशंसा नहीं सहन करना, दूसरों को अपना सेवक समझना, और सब कहीं अपनी ही प्रशंसा की चाहना रखना। .
ये आठों मद आठों बातों की प्राप्ति में सहायभूत हैं, यथा - जातिमद से नीच जाति, कुल मद से अधमकुल, बलमद से निर्बलता, ' रूपमद से कुरूपी अवस्था, ज्ञानमद से अत्यन्त अज्ञानता (मूर्खता); लाभमद से दरिद्रता, तपमद से अविरति दशा, ऐश्वर्यमद से निर्धनता
और सब का सेवकपना प्राप्त होता है, अतएव सज्जनों को किसी बात का मद नहीं करना चाहिए। संसार में ऐसी कोई बात नहीं है, . जिसका मद किया जाए। लोगों की भारी भूल है कि थोड़ी सी