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श्री गुणानुरागकुलकम् बने हुए रुमाल, दुपट्टे, सुन्दर और चिकने होने से अधिक मूल्यों में बिकने लगे। जब कुछ फिर द्रव्य एकत्र हुआ, तो इसने धर्म पिता को दो गदहे मोल ले दिए और कहा कि अब लकड़ी इन पर लाद कर लाया करो और बेचो मत, इकट्ठी करते जाओ, जब वर्षा होगी, तब बेचेंगे, जिससे दाम अधिक मिलेंगे और लिये लिये भी बेचने को मत फिरो। एक टाल कर लो, वहाँ बैठे-बैठे वर्षा में बेचा करना। अब तो ला लाकर केवल जोड़ते ही जाओ। ...
लकड़हारे ने सोचा, बात तो अच्छी है। जब पेट भर खाना मिलने, लगा तो कुबुद्धि भी प्रसन्न रहने लगी और मन में विचार करने लगी कि एक यह भी स्त्री है, जो ऐसी चतुर है कि जब से हमारे यहाँ आई है, क्या से क्या हो गया और एक मैं हूँ कि नित्य कलह करती हूँ। जिस दिन से यह आई है, उस दिन से हमारे घर में लड़ाई का अब कोई नाम भी नहीं जानता। ऐसे ऐसे विचार करके थोड़े ही दिनों में कुबुद्धि भी बुद्धिमती हो गई। जब लकड़हारे के यहाँ इतना हो गया, तब सुविद्या ने अपना और भी वैभव फैलाया। वह क्या था कि अब स्त्रियों और बालक-बालिकाओं की दवाई करने लगी। रानी तो थी ही, सब जानती ही थी। इससे यह नगर भर में प्रसिद्ध होने लगी और घर-घर से बुलावे आने लगे। एक तो इसकी दवाई बहुत अच्छी थी, दूसरी इसकी बोलचाल, रहन-सहन, शील-स्वभाव, दया, नम्रता आदि ऐसे थे कि मन हर लेती थी। जिसके यहाँ एक बार हो आई, उसके यहाँ से सदा के लिए आह्वान (बुलावे) आने लगे। यहाँ तक कि अनेक घरों से अनेक वस्तुएँ भेंट
आने लगीं। अब तो इसका घर सब प्रकार से भरा-पूरा रहने लगा तथा एक बात और कि पड़ोस की लड़कियों को अपने पास ले बैठे