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श्री गुणानुरागकुलकम्
तब रानी ने गिड़गिड़ाकर कहा कि - जो कुछ मेरे भाग्य का होगा, वह मुझे भी मिल जायगा। इस पर लकड़हारे को कुछ दया आ गई। मन में विचार कर कह दिया कि अच्छा जैसे हम रहते हैं, वैसे ही तू भी हमारे संग दुःखी सुखी रह। विधाता तेरे भाग्य का भी टुकड़ा देगा। क्या जाने, तेरे भाग्य से हमें ही लेना बंधा हो। यह रानी चतुर तो थी ही, एक बोझ उसी लकड़हारे की बराबर थोड़ी ही देर में बिन लिया। दूसरे दिनों में तो उसको चार पैसे की ही लकड़ियाँ मिलती थी, आज उससे दूनी हो गई। जब वह लकड़ी की भारी उठा कर चला, तो यह भी सिर पर लकड़ी रख कर, साथ ही चल दी। उस लकड़हारे की स्त्री का स्वभाव बहुत ही क्रूर था। रात-दिन घर में कलह किया करती थी और उसका नाम भी कुबुद्धि था। दूर ही से दूसरी स्त्री को संग आते देख कर वह बोली कि आज इतनी देर क्यों लगा दी ? हम तो सब भूखे बैठे हैं, बाल-बच्चे न्यारे प्राण खाये जाते हैं और मन में कुछ और भी संदेह करने लगी। सुविद्या तुरंत ताड़ गई और कहने लगी कि माता ! आज और दिन से लकड़ी भी तो दूनी आई है। इसी कारण देर लग गई और मेरे "पिता ने मुझ पर दया करके जीवदान दिया है और तेरी सेवा - टहल करने के लिए मुझ पुत्री को लाया है, उस पर क्रोध मत कर। इस देर होने का कारण मैं ही हूँ। इस प्रकार मीठे-मीठे वचन कहकर उसे शांत किया और उन लाई हुई लकड़ियों के तीन बोझ (भारे) बनाकर बाप-बेटों पर रख दिए कि बेच आओ और दिनों में तो चार पैसे की लकड़ी बिकती थीं, आज वे ही दस पैसे की बिकीं, क्योंकि तीन बोझ थे। उस दिन छह पैसे का तो भोजन मँगवाया और चार पैसे को बचा रक्खा। दूसरे दिन इस सुविद्या ने उसके दोनों लकड़ों