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निन्दा करो तो करजो आपणी रे, जे छूटकवारो थाय रे ॥ ॥ निन्दा ॥४॥
गुण ग्रहजो सहु को तणारे,
जेहमां देखो एक विचार रे ।
'कृष्ण' परे सुख पामशो रे,
श्री गुणानुरागकुलकम्
'समयसुन्दर' सुखकार रे॥ ॥ निन्दा ॥५॥
इस पद्य का तात्पर्य यही है कि दूसरों के दोष देखने की आदत छोड़ ही देना चाहिये, क्योंकि परदोष ग्रहण करने से केवल क्लेशों की वृद्धि ही होती है और तप-जप आदि का फल नष्ट होता है । - ' थोड़े घणे अवगुणें सहु भरया, इस लोकोक्ति के अनुसार किसी एक, तो किसी में अनेक दोष होते ही हैं, अतएव दूसरों के दोष न देखकर अपने ही दोषों का अन्वेषण करना चाहिये, जिससे कि सद्गुणों की प्राप्ति हो । जो पुरुष परापवाद आदि दोषों को छोड़कर, सभी के गुणों को ग्रहण करता है, संसार में वहीं सुखी होता है। कहा भी है कि -
में
यदीच्छसि वशीकर्तुं, जगदेकेन कर्मणा । परापवादसस्येभ्यश्चरन्तीं गां निवारय ॥ १ ॥
भावाथ - जो एक ही कर्म (उपाय ) से जगत मात्र को अपने वश में करना चाहते हो, तो परापवाद ( परनिन्दा ) रूप घास को चरती हुई वाणीरूप गौ को निवारण करो, अर्थात् स्ववश में रक्खो ।
वास्तव में जो मनुष्य प्रियवचनों से सबके साथ बात करता है, और स्वप्न में भी किसी की निन्दा नहीं करता। उसके वश में