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श्री गुणानुरागकुलकम् अविनाशी अविच्छिन्न (शाश्वत) सम्पत्तियाँ प्राप्त हो सकती हैं; इसलिये आपकी सेवा में ही रह कर मैं अपना जीवन व्यतीत करना चाहता हूँ, क्योंकि संसार रूपी दावानल में सन्तप्त जीवों के लिये आपका ही समागम विश्रामस्थान होने से आनन्द कारक है।
इस प्रकार उस ब्राह्मण का चित्त संसार से उद्विग्न और वैराग्यवान देखकर विधिपूर्वक उन महात्मा ने उसको पारमेश्वरी दीक्षा दे दी, फिर वह ब्राह्मण संत सेवा में रहकर आत्मीय ज्ञान का सम्पादन करने लगा एवं निरतिचार (निर्दोष) धर्मानुष्टान को परिपालन करता हुआ शाश्वत सुख को प्राप्त हुआ। सत्संग की महिमा -1 "सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम्?" . .
संसरणशील संसार में सज्जनों का संग क्या नहीं कर योग्य है, अर्थात् इहलोक में सानन्द आयु को बिताकर अंत में कैवल्य प्राप्ति कराने का यह एक ही उपाय है। नीतिकारों ने भी इस महिमा का वर्णन किया है कि - "चन्दनं शीतलं लोके, चन्दनादपि चन्द्रमाः। चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये, शीतला साधुसङ्गतिः ॥१॥ साधु सङ्गतयो लोके, सन्मार्गस्य प्रदीपकाः। हार्दान्धकारहारिण्यो, भासो ज्ञानविवस्वतः" ॥२॥
भावार्थ - संसार में चन्दन शीतल कहा जाता है और चन्दन से भी विशेष चन्द्रमा शीतल माना गया है, परन्तु चन्दन और चन्द्रमा से भी उत्तम सत्संग ही बतलाया है। इस लोक में साधु समागम ही सन्मार्ग का दीपक और