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श्री गुणानुरागकुलकम् अभ्यास से ही सकलक्रिया में कुशलता प्राप्त होती है, यह बात लिखना, पढ़ना, गिनना, नृत्य करना, वगैरह सर्व कलाओं में अनुभव सिद्ध है। कहा है कि - अभ्यास से ही सम्पूर्ण कला और क्रिया आती हैं तथा अभ्यास से ही ध्यान मौनव्रत आदि क्रियाएं सहज में कर सकते हैं, अभ्यास से कौन बात होना कठिन है? निरन्तर विरति परिणाम का अभ्यास करने से परलोकगमन होने पर भी अभ्यास का संस्कार जमा रहता है।
इस पर शास्त्रकारों ने अनेक उदाहरण दिए हैं। लेकिन यहाँ एक दो उदाहरण (दृष्टान्त) दिखाये जाते हैं कि - : . "एक अहीर अपनी गौ के बच्चे को उठाकर नित्य जंगल में ले जाया करता था और शाम को फिर घर लाता था। इसी तरह अभ्यास करते-करते दो तीन वर्ष के बैल को भी वह अहीर उठाकर ले जाता और ले आता था।" ___ "एक राजकुँवर हाथी के बच्चे को प्रातः समय उठकर निरन्तर उठाया करता था, इसी तरह नित्य उठाने का अभ्यास करने से वह बड़ा होने पर भी उस हाथी को हाथों में ऊँचा उठा लेता था।"
इसी से कहा जाता है कि अभ्यास से सब कुछ सिद्ध हो सकता है।
अभ्यास - शब्द ध्यान और एकाग्रता पूर्वक चित्त को स्थिर रखना इन अर्थों में भी है। सांसारिक वृत्ति से विरक्त चित्त को स्वपरिणाम में स्थापित करने का प्रयत्न करना उसका नाम 'शद्ध अभ्यास' है। मैत्री आदि का मूलाधान (बीजस्थापन) युक्त और गोत्रयोगी व्यतिरिक्त जो कुलयोगी आदि, उनको प्रायः शुभ अभ्यास होता है। जिसने योगियों के कुल में जन्म पाया है और उनके