________________
श्री गुणानुरागकुलकम्
. भावार्थ - किसी मनुष्य के दोष न देखते हों १, दूसरों के अल्प गुणों की भी नित्य प्रशंसा करते हों २, दूसरों की वृद्धि या समृद्धि देखकर संतोष रखते हों ३, दुःखियों को देख कर करुणा (शोक) करते हों ४, आत्म प्रशंसा न करते हों ५, दुःखित होने पर भी नीतिमार्ग न छोड़ते हों ६, सभ्यता रखते हों ७ और अपनी निन्दा सुनकर भी क्रुद्ध न होते हों ८, ये सब महात्माओं के चरित्र हैं। अर्थात् - जिन पुरुषों का आचरण दोष रहित हो, जो सच्चरित्रवान तथा विद्या बुद्धि से सम्पन्न हों, जिनका अंत:करण निर्मल तथा वाणी मधुर मनोहर प्रियंवदा हो और जो जितेन्द्रिय सन्तोषी हो, जिनका जीवन उच्च आदर्शमय हो, वे ही संज्जन पुरुष हैं और यही सज्जन का लक्षण भी है। अत: सत्संगति संसार में मनुष्य के लिए स्वजीवन का उन्नत बनाने का, दिगदिगन्तव्यापी यशोपार्जन करने का मार्ग और सन्तति को आनन्द प्राप्त करने का पथ है। ..... सत्समागम से अनुभव मार्ग में प्रवेश होकर अप्रतिम सुख प्राप्त होता है और पर वस्तुओं पर उदासीनता होती है। बाह्यदृष्टि का अभाव, वैराग्यदृष्टिं का पोषण और निर्दोष सत्यमार्गाभिमुख गमनं होता है। मिथ्यामति का विनाश, शुभमति का प्रकाश और उत्तरोत्तर गुणश्रेणी में प्रवेश होता है। . . . इस प्रकार वह ब्राह्मण शास्त्रोक्त युक्तियों के द्वारा विचार करता हुआ और सांसारिक क्षणिक सुखों का अनुभव कर जगज्जाल माया में मोहित न होकर, छह महीना तक पर्यटन करने की प्रतिज्ञा पूर्ण हो जाने से उन्हीं महोत्तम सर्वत्र स्वतंत्र परमोपकारी महात्मा के समीप आया और हाथ जोड़कर विनयावनत भाव से कहने लगा कि -
"अब हम सन्तसमागम पाया, निज पद में जब आया ॥ टेर ॥ एक भूल के कारण मैंने, कितनी भूल बढ़ाया। अन्तर नयन खोल