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श्री गुणानुरागकुलकम्
विप्र विद्वान था, उसने विचारा कि महात्मा संपूर्ण सुखानुभव कराने में समर्थ होते हैं। इसलिए संसार में कौन सुखी. है ? इस बात का पहिले अनुभव करके पीछे वैसा ही सुखी होना माँगू तो ठीक होगा। ऐसा विचार कर ब्राह्मण ने कहा कि - महाराज ! यदि आप प्रसन्न हुए हैं तो मुझे कुछ दिनों की अवधि दीजिए, फिर जो चाहना होगी वह माँग लूंगा।
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महात्मा ने उत्तर दिया कि - यथेच्छा । ब्राह्मण सुखानुभव करने के लिए वहाँ से निकला और प्रथम राजवंशीय लोगों की सेवा में अपना समय व्यतीत करना आरम्भ किया, इससे कुछ दिन के बाद अनुभव हुआ कि - राजवंशीय लोग एक दूसरे की विभूति को छीनने के लिए प्रयत्न कर रहे हैं, एक दूसरे की ईर्षा में निमग्न हो और एक . दूसरे को नष्ट करने का इरादा कर रहें हैं, निरन्तर कलह के सबब
क्षणभर भी सुखपूर्वक नहीं बैठ सकते। इस प्रकार की राजवंशियों की दशा देखकर ब्राह्मण पंडितों की सेवा में उपस्थित हुआ, तो थोड़े दिनों में ही उसको अनुभव हुआ कि पंडित लोग एक दूसरे की प्रशंसा सुन सहन नहीं कर सकते, वाद विवाद में पड़कर शास्त्रविरुद्ध भी आचरण करते देरी नहीं करते, प्रतिवादी को किस प्रकार परास्त करना चाहिए? इसी परामर्श (विचार) में निमग्न बने रहते हैं, व्यर्थ बातों के ऊपर वाद विवाद कर बैठते हैं, अपना उत्कर्ष और दूसरों का अपकर्ष करने के लिए नवीन पुस्तकें बनाने में लगे रहते हैं, छात्रों को उपकारित्व भाव से विद्याध्ययन कराने में आनन्दित नहीं रहते और द्रव्य देने वालों को ज्ञानी ध्यानी वा उत्तम वंशोत्पन्न समझकर पढ़ाने में दत्त चित्त रहते हैं। सिवाय अपने पाण्डित्य को संसार में प्रकट करने के और कुछ भी नहीं करते । इत्यादि बातों से पंडितों