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श्री गुणानुरागकुलकम्
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दोषारोप रूप अमेध्य भोजन और निन्दा रूप दुर्गन्धित जल की नित्य चाहना किया करते हैं। कहा भी है कि -
प्रायेणाऽत्र कुलान्वितं कुकुलजाः श्रीवल्लभं दुर्भगाः, दातारं कृपणा ऋजूननृजवो वित्ते स्थितं निर्धनाः । वैरुप्योपहताश्च कान्तवपुषं धर्माऽऽ श्रयं पापिनो, नानाशास्त्रविचक्षणं च पुरुषं निन्दन्ति मूर्खाः सदा ॥
भावार्थ - प्राय: इस संसार में अधम लोग कुलीनों (उत्तम पुरुषों) की, निर्भाग्य लोग भाग्यवानों की कृपण (सूम - कंजूस) लोग दाताओं की कुटिल लोग सरलाशय वाले सत्पुरुषों की, निर्धन, धनवानों की, रूप विहीन रूपरूपवानों की, पापी लोग धर्मात्माओं की और मूर्ख निरक्षर या मत्सरी लोग अनेक शास्त्रों में विचक्षण (चतुर) विद्वानों की निरंतर निन्दा किया करते हैं ।
मत्सरी लोगों का स्वभाव ही होता है कि वे पंडित, गुणवान और महात्माओं के साथ द्वेष रख, हर जगह उनकी निन्दा में तत्पर हो उसी में अपना जीवन सफल समझते हैं । मत्सरी लोग मिटे हुए . कलह को फिर से उदीर्ण करने में नहीं सरमाते। उन्हें संसार परिभ्रमण करने का भी भय नहीं रहता, इससे निर्भय होकर दुराचार में प्रवृत्त रहते हैं। बहुत लोग तो मत्सरभाव से धार्मिक झगड़े खड़े कर कुसंप बढ़ाने में ही उद्यत होने से इस भव में निन्दा के भाजन बनते हैं और परभव में भी मात्सर्य के प्रभाव से अनेक दुःख भोगने वाले होते हैं, क्योंकि मात्सर्य करना भवभीरुओं का काम नहीं है, किन्तु भवाभिनन्दियों का काम है। कहा भी है कि -
" क्षुद्रो लोभरतिर्दीनो, मत्सरी भयवान् शठः ।
अज्ञो भवाभिनन्दीस्या निष्फलारम्भसतः ॥ १ ॥
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