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श्री गुणांनुरागकुलकम्
५५ सद्वस्तु को ग्रहण करना, किन्तु किसी के साथ राग-द्वेष नहीं रखना 'मध्यस्थ सौम्य दृष्टि गुण' कहता है। इस गुणवाला मनुष्य सौम्यता से ज्ञानादि सद्गुणों को प्राप्त और गुणों के प्रतिपक्षभूत दोषों को त्याग कर सकता है, अतएव मध्यस्थ स्वभावी और सौम्य दृष्टि पुरुष ही धर्म के योग्य है।
१२. गुणानुरागी - गुणीजनों के गुण पर हार्दिक प्रेम रखना और गुणवान साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका और सन्मार्गानुसारी पुरुषों का बहुमान करना, यहाँ तक कि अपना अपकारी भी क्यों न हो, किन्तु उसके ऊपर भी द्वेष-बुद्धि नहीं लाना 'गुणानुरागी' कहाता है। इसलिये गुणानुरागी हुए बिना पुरुष धर्म के योग्य नहीं हो सकता है।
१३. सत्कथ्रक - वैराग्यभाव को उत्पन्न करने वाली तीर्थकर, गणधर, महर्षि और उत्तमशील-सम्पन्न सतियों आदि की कथा कहने वाला पुरुष धर्म करने के योग्य होता है, क्योंकि धार्मिक कथानुयोग के ग्रन्थ और सत्पुरुषों के जीवन चरित्र वाँचने से उत्तमता, सहनशीलता आदि सद्गुणों की प्राप्ति होती है, इसीलिये विकथाओं का त्याग करने वाला पुरुष भी धर्म के योग्य हो सकता है। अतएव सत्कथी पुरुष जिनसे कर्म का बंधन होता हो, ऐसी श्रृंगार आदि की कथाओं से बिलकुल अलग रहता है, इससे उसको कर्मबंधन नहीं होता।
.. १४. सुपक्षयुक्त - जिसका कुटुम्ब परिवार और मित्रवर्ग सदाचारी, गुणानुरागी, सुशील और धर्मपरायण तथा सत्संगी हो, वह सुपक्षयुक्त गुणवाला पुरुष कहा जाता है। सुपक्षवाला पुरुष धार्मिक क्रियाओं को और सद्गुणों को निर्विघ्नता से प्राप्त कर