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श्री गुणानुरागकुलकम्
५३ ६. भीरुता- पापकर्मों से डरते रहने को भीरुता कहते हैं। जिन कार्यों के करने से राजदंड, लोक में निन्दा और परलोक में कुत्सित गतियों की प्राप्ति होती हो, वैसे कार्यों का त्याग करने वाला मनुष्य सुखों का भाजन बनता है, क्योंकि - भीरु मनुष्य भवभ्रमण से डरता हुआ असद् व्यवहार में प्रवृत्त नहीं होता, इसी से उसको सद्गति प्राप्त होती है।
७. अशठता - निष्कपट भाव रखना, अर्थात् प्ररूपणा, प्रवर्त्तना और श्रद्धा इन तीनों को समान रखना, सो 'अशठता' कहाती है। जिसकी रहनी कहनी.समान होती है, वहीपुरुष अनेक गुणों का पात्र बनता है। जो लोग कपट पूर्वक हर एक धर्म क्रिया में प्रवृत्त होते हैं, वे धर्म के वास्तविक फल को नहीं प्राप्त कर सकते हैं। कपट क्रिया धर्म की हानि करने वाली होती है, अतएव कपटरहित मनुष्य ही धर्म के योग्य है। ..
८. सुदाक्षिण्य - दूसरोंको तिरस्कार करने का स्वभाव नहीं रखना, किन्तु परोपकार-परायण ही रहना। जो काम इस लोक और परलोक में हितकारक हो, उसमें प्रवृत्ति रखना तथा किसी मनुष्य की प्रार्थना का भंग नहीं करना। उसको 'सुदाक्षिण्य' कहते हैं। दाक्षिण्य गुण सम्पन्न पुरुष अपने सदुपदेशों द्वारा सबका भला चाहता रहता है, किन्तु किसी को दुःख में डालने की योजना नहीं करता, इससे वह धर्म के योग्य हो सकता है।
९. लज्जालु - देशाचार, कुलाचार और धर्म से विरुद्ध कार्य में प्रवृत्त न होने वाले को लज्जालु कहते हैं अर्थात् - मरणान्त कष्ट आ पड़ने पर भी स्वयं की हुई प्रतिज्ञा का भंग नहीं करना। लज्जावान्