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श्री गुणानुरागकुलकम् को अशक्त-शक्तिहीन कहते हैं। इसलिए संसार में गुणीजनों का ऐसा कौन सा गुण है, जो मत्सरी लोगों के द्वारा दोषों से अङ्कित न किया जाता हो, किन्तु मत्सरी सब में कुछ न कुछ दोषाऽऽरोप करते ही रहते हैं।
मत्सरी - लोगों में प्राणी मात्र की हिंसा करना, जाति या धर्म में विग्रह खड़ा करना, परदुःख में आनन्दित होना, परस्त्रीगमन करना, गुणीजनों की निन्दा करना, असदाग्रह में तत्पर रहना, विद्वानों के साथ द्वेष रखना, गुणवानों की सम्पत्ति देख दुःखी रहना, परद्रव्य हरण करना, पापोपदेश देना; इत्यादि दुर्गुण स्वाभाविक होते हैं। इसी सबब से मत्सरी लोगों को दुर्जन, खल, दुष्ट आदि शब्दों से शास्त्रकारों ने व्यवहार किया है।
. . ___लोक में उद्यम, साहस, धैर्य, बल, बुद्धि, पराक्रम, सदाचार और परोपकार; आदि सद्गुणों से मनुष्यों की प्रख्याति या प्रशंसा सर्वत्र होती है, परन्तु मत्सरी ज्यों-ज्यों सत्पुरुष के गुणों का अनुभव करता जाता है, त्यों-त्यों उसे अनेक दुःख सताने लगते हैं, क्योंकि सद्गुणों का अभ्युदय ईर्ष्यालुओं के हृदय में कंटक के समान गुचा करता है। पीलिया रोगवाला मनुष्य सब वस्तुओं को पीले रंगवाली ही देखा करता है, उसी तरह मत्सरी भी सद्गुणों को दोष रूप समझकर हृदय दग्ध बना रहता है और इसी आवेश में वह अपने अमूल्य मनुष्य जीवन को व्यर्थ खो बैठता है, किन्तु उससे उत्तम गुण प्राप्त नहीं कर सकता।
___ इसलिये जो अपार संसार के दुःख से छूटना हो तथा सर्वत्र अपना या धर्म का अभ्युदय करना हो और अनुपम सुख की चाहना हो, तो गुणवानों के गुणों पर ईर्ष्या लाना या दोषाऽऽरोप देना बिलकुल छोड़ दो और मैत्री धारण कर सर्वत्र शांति प्रचार का