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श्री गुणानुरागकुलकम्
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"बहुत पढ़ने, तपस्या करने और दान देने से क्या होने वाला है ?" ऐसा जो ग्रंथकार ने उपदेश दिया है, उसका उद्देश यह नहीं है कि बिलकुल पढ़ना ही नहीं या तपस्या आदि करना नहीं, किन्तु वह गुणानुराग पूर्वक ही पठन-पाठनादि करना चाहिये, क्योंकि - गुणानुराग से ही सब क्रियाएँ सफल होती हैं। इसलिये प्रथम अन्य क्रियाओं का अभ्यास न कर, एक गुणानुराग को ही सीखना चाहिये।
इसी विषय को ग्रंथकार फिर दृढ़ करते हैं.
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जइ वि चरसि तवविउलं, पढसि सुयं करिसि विविहकट्ठाई । न धरिसि गुणाणुरायं, परेसु ता निष्फलं सयलं ॥५॥
यद्यपि चरसि तपोविपुलं, पठसि श्रुतं करोषि विवधकष्टानि । न धारयसि गुणानुरागं, परेषु ततो निष्फलं सकलम् ॥५॥
शब्दार्थ - (जइवि ) यद्यपि तूं (तवविउलं) बहुत तपस्या (चरसि ) करता है, तथा (सुयं) श्रुत को (पढसि) पढ़ता है और (विविहकट्ठाइं) अनेक प्रकार के कष्टसाध्य कार्यों को (करिसि) करता है, परन्तु (परेसु) दूसरों के विषे (गुणानुरायं) गुणानुराग को (न) नहीं (धरिसि) धारण करता है (ता) तिससे (सयलं) पूर्वोक्त सब परिश्रम (निष्फलं) निष्फल है।
विवेचन - गुणानुराग का इतना महत्त्व दिखलाने का कारण यही है कि इसके बिना तप करने, श्रुत अर्थात् शास्त्र पढ़ने और अनेक कष्ट साध्य कार्यों के करने का यथार्थ फल नहीं मिलता और दूसरे सद्गुणों की प्राप्ति ही होती है। अभिमान, आत्मप्रशंसा और ईर्ष्या ये दोष हर एक अनुष्ठान के शत्रुभूत हैं। संसार में लोग घर, सत्य, लक्ष्मी आदि माल मिलकत छोड़कर अनेक प्रकार के तपोऽनुष्ठान करने में अडग (निश्चल) बने रहते हैं, तथा स्वाधीन
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