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श्री गुणानुरागकुलकम् गणावच्छेदक, स्थविर आदि लोकोत्तर महोत्तम पदवियाँ सहज ही में (बिना परिश्रम) प्राप्त होती है, परन्तु गुणानुराग उत्तम प्रकार का होना चाहिये, जिसमें कि किंचिन्मात्र भी विकार न हो। . विवेचन - वैर, मात्सर्य, द्वेष और कलह; इन चार दुर्गुणों का प्रादुर्भाव जब तक हृदयक्षेत्र में रहता है, तब तक गुणों पर अनुराग नहीं होने पाता; इससे प्रथम इन्हीं दुर्गुणों का त्याग करना चाहिये।
वैर एक ऐसा दुर्गुण है, जो प्रचलित संप (मिलाप) में विग्रह खड़ा कर देता है। वैर रखने वाले मनुष्यों को शास्त्रकारों ने अधम प्रकृतिवालों में माना है। सकारण या निष्कारण किसी के साथ वैर रखना निकाचित - कर्मबन्ध का कारण है। वैर के प्रसंग से दूसरे अनेक दोषों का प्रादुर्भाव होता है, जिससे भवभ्रमण के सिवाय और कुछ फायदा नहीं मिलता। अनादि काल से इन्हीं दोषों के सबब से यह चेतन महादुःखी हुआ, और पराभव के वश पड़ निजगुण को भूल गया। यहाँ तक कि - तन, धन, स्वजन और कुटुम्ब से विमुख हो नरक गति का दास बना। सूत्रकृताङ्गजी में सुधर्मस्वामी फरमाते हैं कि - . "वैराणुबंधीणि महन्मयाणि" ... वैर विरोध के अनुबन्ध (कारण) महाभय उत्पन्न करते हैं और वे भय मनुष्यों (प्राणीमात्र) को अन्तराय किये बिना नहीं रहते। वैर भयंकर अग्नि हैं, जिस प्रकार अग्नि का स्वभाव सब को भस्म करने का होता है। उसी प्रकार वैर भी आत्मीय सब गुणों का नाश कर दुर्गति का पात्र बना देता है और प्राप्त गुणों को नष्ट कर देता है।