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श्री गुणानुरागकुलकर विवेचन - जो मनुष्य ऐसा विचार करता है कि - कोई प्राणी पाप न करे, अर्थात् - पाप करने से कर्म बंध होता है, जिसका परिणाम अनिष्टगति की प्राप्ति है, वह मैत्री भावना रखने वाला कहा जाता है, या कोई दुःखी न हो, जिसके हृदय में ऐसी भावना है, वह पुरुष परम दयालु होने से स्वयं सुखी रहता है और दूसरों को भी सुख पहुँचाने की चेष्टा करता है, जिसका परिणाम उत्तम गति है तथा 'जगत के सभी जीव मुक्त हो जायँ' जिसकी ऐसी भावना है, वह परम कृपालु स्वयं मुक्त करने वाला होता है, क्योंकि जमत् का कल्याण करने वाला पुरुष असद मार्ग से हमेशा दूर रहता है और अपने समागम में आये हुए लोगों को गुणी बनाता है। -
महानुभावों ! संसार में ऐसी कोई भी जाति अथवा योनि या स्थान किंवा कल नहीं है, जहाँ कि- यह जीव अनन्त बार उत्पन्न और मृत्यु को प्राप्त न हुआ हो। इसी से कहा जाता है कि - "सव्वे सयणा जाया, सव्वे जीवाय परजणा जाया।"
___ अर्थात् - सब प्राणी परस्पर स्वजन संबंधी हुए और सभी जीव परजन (अपने से प्रेम नहीं रखने वाले) भी हुए। अतएव एकेन्द्रिय जीवों से लेकर पञ्चेन्द्रिय पर्यन्त सभी जीवों के साथ हार्दिक प्रेम रखना चाहिये; किन्तु किसी के साथ राग-द्वेष परिणाम रखना ठीक नहीं है। प्रमोद भावना - अपास्ताशेषदोषाणां, वस्तुतत्त्वावलोकिनाम्। गुणेषु पक्षपातो यः, स प्रमोदः प्रकीर्तितः ॥११९॥