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श्री गुणानुरागकुलकम् करते थे। उस समय हमारे जैन धर्म की कितनी उन्नति झलकती थी और अभी की अपेक्षा जैनों की कितनी वृद्धि होती थी? इस विषय का जरा सूक्ष्म बुद्धि से विचार किया जाय तो यही मालूम पड़ता है कि - उस समय में ऐक्यता का बंधन प्रशंसनीय था जिससे वे महानुभाव अपनी-अपनी उन्नति करने में कृतकार्य होते थे। अतएव
महानुभावों! परस्पर के कुसंप बीजों को जलाञ्जली देकर जैन धर्म की उन्नति करने में परस्पर ऐक्यता रक्खो और परापवाद (निन्दा) आदि दुर्गुणों को छोड़ो, जिससे फिर जैन धर्म और जैन जाति का प्रबल अभ्युदय होवे, क्योंकि - ऐक्यता ही सम्पूर्ण उन्नति मार्ग में प्रवेश कराने वाला अमूल्य रत्न है।
इस प्रकार इन चारों दुर्गुणों को दुःखदायी समझकर समूल परित्याग करने से हृदयक्षेत्र शद्ध होता है और उसमें प्रत्येक सद्गुण उत्पन्न होने की योग्यता होती है। वैर आदि दर्गणों का अभाव होते ही शांति आदि सद्गुण बढ़ने लगते हैं और सब संसार में शांति फैलाने वाली और कुसंप को समूल नष्ट करने वाली मैत्री १, प्रमोद २; कारुण्य ३ और माध्यस्थ ४ ये चार महोत्तम भावनाएँ पैदा होती हैं। जिनका स्वरूप योगशास्त्र के चौथे प्रकाश में इस तरह कहा है कि - मैत्री आदि भावना - माकार्षीत्कोऽपि पापानि, मा च भूत्कोऽपि दुःखितः। मुच्यतां जगदप्येषा मतिमैत्री निगद्यते॥ ११८॥
भावार्थ - समस्त प्राणियों में कोई भी पापों को न करे, और न कोई प्राणी दुःखी रहे तथा समस्त संसार, कर्मों के उपभोग से मुक्त हो जायँ; इस प्रकार की बुद्धि का नाम 'मैत्री भावना' है।