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श्री गुणानुरागकुलकम् सदाचारी या तपस्वी कहेंगे, संसार में सर्वत्र हमारी कीर्ति फैलेगी, हमारा महत्त्व व स्वामित्व बढ़ेगा, हमें लोग पूजेंगे तथा वन्दना करेंगे अथवा हमें उत्तम पदवी मिलेगी; इत्यादि अपने स्वार्थ की आशा से बाह्याडम्बर मात्र से शुद्ध आचरण और शास्त्राभ्यासादि करना तथ सबके साथ उचित व्यवहार रखना सो सब स्वप्रशंसा के निमित्त है इससे परमार्थतः यथार्थ फल प्राप्त नहीं हो सकता और जो अनादि काल से यह आत्मा दोषों के वशवर्ती हो, गुणधारण किये बिना नाना दुःखों को सहन करती है, परन्तु लेश मात्र सुख का अनुभव नहीं कर सकता। इस विचार से आप्तप्रणित सिद्धांतों के रहस्यों को स्वक्षयोपशम या गुर्वादिकों की कृपा से समझकर यथाशक्ति सदाचरण को स्वीकार कर दोषों का परित्याग करना; वह स्वहितगुणधारण है। वास्तव में इस विचार से जो गुण आचरण किये जाते हैं, वे ही उभय लोक में सुखानुभव करा सकते हैं।
. जो लोग अनेक कष्ट सहन कर परहित करने के निमित्त सद्गुणों का संग्रह करते हैं अथवा परोपकार करने की बुद्धि से शास्त्र अभ्यास व कलाभ्यास करते हैं; तथा सब जीवों का उद्धार करने के लिये संयमपालन करते हैं; और गाँव-गाँव पैदल विहार कर अपने उपदेशों से असद् मार्ग में पड़े हुए प्राणियों को निकालकर सद्धर्ममार्ग में स्थापित करते हैं अथवा हमेशा निःस्वार्थ वृत्ति से दोष रहित आप्तभाषित उत्तम धर्म की प्ररूपणा करते हैं; वह सब आचरण लोकोपकारार्थ है। इससे उत्तमता के और अनुपम सुख के दायक ये ही सद्गुण हैं, इसीका नाम असली गुणानुराग है। अतएव अकृत्रिम गुणानुरागी सत्पुरुष सब में गुण ही देखते हैं, परन्तु उनकी दृष्टि दोषों पर नहीं पड़ती।