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श्री गुणानुरागकुलकम् दयापात्र प्राणियों के दुःख मिटाने का प्रयत्न करो कि जिसका परिणाम उभय लोक में उत्तम हो। कहा भी है कि -
परपरिभवपरीवादा - दात्मोत्कर्षाञ्च बध्यते कर्म। नीचेोत्रं प्रतिभव - मनेकभवकोटिदुमोर्चम् ॥१॥ . भावार्थ - दूसरों का तिरस्कार (अपमान) तथा दूसरों की निन्दा और आत्म प्रशंसा से नीच गोत्र नामक कर्म का बंध होता है, जो अनेक भवकोटी पर्यन्त दुर्मोच हो जाता है, अर्थात् बहुत मुश्किल से छूट सकता है। इसलिये परनिन्दा, परापमान और आत्मोत्कर्ष को सर्वथा छोड़कर आत्मा को कारुण्यभावना से भावित करना चाहिये। माध्यस्थ्यभावना - क्रूरकर्मसु निःशङ्कं, देवतागुरुनिन्दिषु। आत्मशंसिषु योपेक्षा, तन्माध्यस्थ्यमुदीरितम् ॥१२१॥ ___भावार्थ - निःशङ्क होकर क्रूर कर्म करने वाला तथा देवता और गुरु की निन्दा करने वाला एवं आत्मश्लाघा (अपनी प्रशंसा) करने वाला जीव अधम माना गया है, ऐसे जीवों पर भी उपेक्षा करना 'माध्यस्थ्यभावना' मानी गई है।
_ विवेचन - संसार में लोग भिन्न-भिन्न प्रकृति वाले होने से परभव में होने वाले दुःखों की परवाह न कर कुत्सितकर्म (निन्दनीय व्यापार) या देव गुरु की निन्दा और अपनी प्रशंसा तथा दूसरों का अपमान करने में उद्यत रहते हैं। परन्तु उन पर बुद्धिमानों को समभाव रखना चाहिये, किन्तु उनकी निन्दा करना अनुचित है। जिनेश्वरों ने यथार्थ रूप से वस्तुस्वरूप दिखलाने की मना नहीं की, किन्तु निन्दा करने की तो सख्त मनाई की है। सदुपदेश देकर ऐसे लोगों को