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श्री गुणानुरागकुलकम् हृदय क्षेत्र में वैर का असर रहता है जब तक दूसरे गुणों का असर नहीं होने पाता, और किंचिन्मात्र सुखानुभव भी नहीं हो सकता।
इसलिये वैर सब सद्गुणों का शत्रुभूत और संसारवर्द्धक है, ऐसा समझ कर कल्याणार्थी - महानुभावों को दुःखमय संसार से छूटने के निमित्त सद्गुणी बनकर नित्यानन्द प्राप्ति के लिये इस प्रकारकी प्रतिज्ञा करनी चाहिये कि"मित्ती में सव्वभूयेसु, वेरै मज्झं न केणइ।"
देव, दानव, आर्य, अनार्य, स्वधर्मी, विधर्मी, स्वगच्छीयपरगच्छीय आदि सब प्राणियों के साथ मेरा मैत्रीभाव है, परन्तु किसी के साथ वैरभाव नहीं है। क्योंकि -
सब के साथ आन्तरिक प्रेम रखना ही मनुष्य का परम कर्तव्य है; अगर किसी के साथ धार्मिक विषय में जो कुछ बोलना सुनना पड़े तो उसके साथ अत्यन्त मधुर वचनों से व्यवहार करना चाहिये, जिससे अपने कहने का असर उस पर जल्दी होवे। बहुत से लोग सत्य और असत्य बात का विचार न कर धार्मिक वैर-विरोध खड़े करते हैं और ममत्व के आवेश में वशीभूत हो, तडे पाड कर जाति में कुसंप (भेद) डाल देते हैं। परन्तु वस्तुतः यह सब प्रपंच अवनति कारक और दुर्गतिदायक ही है। ऐसे वैर विरोध खड़े करने से संसार में किसी का लाभ नहीं हो सकता, किन्तु अपनी और दूसरों की हानि ही होती है। हमारे आचार्यवों का तो यही उपदेश है किवैर विरोध करना बहुत हानिकारक है, वैर विरोध से ही कौरव और पांडव अपनी राज्य और कुटुम्ब संपत्ति आदि से विमुख हुए। सैकड़ों राजा, महाराजा, सेठ, साहूकार, वैर विरोध के आवेश में आकर दुर्गति के पात्र बन, मनुष्य जीवन को हार गये। वस्तुतः देखा जाय