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श्री गुणानुरागकुलकम् . वर्तमान समय में हमारे जैन भाईयों ने इस दुर्गुण को मानो भपना येक निजगुण मान रखा है। इसी से जहाँ देखते हैं वहाँ प्रायः षभाव के सिवाय दूसरा कुछ भी गुण दृष्टिपथ नहीं आता। गच्छों के ममत्व में पड़कर अथवा क्रियाओं के व्यर्थ झगड़ों में पड़कर रस्पर येक दूसरे को 'उत्सूत्रभाषी' 'अविवेकी' 'अज्ञानी' भवाभिनंदी' आदि संबोधनों से सम्बोधित कर द्वेषभाव बढ़ाते हैं और द्वेषावेश में गुणीजनों (महात्माओं) की भी आशातना कर व्यर्थ कर्म बाँधते हैं।
यह 'जैनधर्म' सर्वमान्य धर्म है, इसके संस्थापक सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग भगवान् हैं, जो राग और द्वेष रहित थे और दूसरों को भी राग द्वेष रहित उपदेश देते थे। जैन मात्र उन्हीं से सदुपदेशों के ग्राहक और उनके वचन पर श्रद्धालु हैं। परन्तु खेद की बात है के आज दिन उन्हीं जैनों ने अपने निजस्वरूप को छोड़ राग द्वेष के आवेश में आकर भगवान् के उपदेश को विस्मरण कर दिन पर दिन परस्पर निन्दा कर द्वेषभाव फैलाते हैं, अर्थात् - श्वेताम्बरी दिगम्बरीयों की और दिगम्बरी श्वेताम्बरियों की, स्थानकपन्थी मन्दिरमार्गियों की तथा मंदिरमार्गी स्थानकपंथियों की, तेरहपंथी ढूंढियों की और इंढ़ियो तेरहपन्थीयों की अश्लील (अवाच्य) शब्दों से निन्दा कर द्वेष भाव बढ़ाते हैं, परन्तु वास्तविक तत्व क्या है? इस बात का विचार नहीं कर सकते।
जैनी महानुभावों! यह तुम्हारी उन्नति तथा बुद्धि होने का और सद्गुण प्राप्ति का मार्ग नही है, यह तो केवल अवनति का और अज्ञानी बनने का ही मार्ग है। आचार्यवर्य बहुश्रुतगीतार्थ - शिरोमणि