________________
श्री गुणानुरागकुलकम् तो वैर बड़ा भारी दुर्गुण होने से समग्र दुःखों का स्थान है। इसलिये वैर विरोध बढ़ाकर सर्वत्र अशान्ति फैलाने के समान कोई भी अधर्म नहीं है, और न इसके तुल्य कोई अधमता है। वैरकारक मनुष्य अनेक जीवों को दुःख देता हुआ स्वयं नाना दुःखों को उपार्जन करता है। इस भव में अनेक दुःखदायी कर्म बांधता है और पर भव में भी नरक, तिर्यञ्च आदि स्थानों में जाता है। फिर वहाँ वैरानुबंधी बध बन्धन आदि कर्मों का अनुभव करता है। अतएव सब दुःखों का मूल कारण वैरभाव है उसको परित्याग कर देना ही बुद्धिमान पुरुषों को उचित है। मात्सर्य -
दूसरा दुर्गुण है 'मात्सर्य' है, मत्सरी मनुष्य निरन्तर आकुल व्याकुल रहने से क्षणमात्र भी सुखी नहीं रहता, इस कारण सद् - असद् वस्तु का विचार भी नहीं कर सकता है। इससे उसको सद्गुण या सद्गुणों पर अनुराग नहीं होने पाता और वह हमेशा कृश (दुर्बलता) बन, असंख्य दुःखों का पात्र बना रहता है। इसलिये आत्महितेच्छुओं को इस दुर्गुण का भी त्याग करना उचित है -
देष
तीसरा दुर्गुण 'द्वेष' है। यह द्वेष सारे स्गुणों का शत्रुभूत है। यही दुर्गुण आत्मीय ज्ञानादि महोत्तम गुणों को नष्ट कर देता है। यदि संसार में राग और द्वेष ये दो दुर्गुण नहीं होते तो सर्वत्र शान्ति का ही साम्राज्य बना रहता। क्योंकि - संसार में जितने बखेड़े हैं वे सब रागद्वेष के संयोग से ही है। कहा भी है कि -