________________
श्री गुणानुरागकुलकम् श्रद्धा) से आपके यथार्थ दर्शन होते हैं और आपके सुवचन परिपालन (आज्ञानुसार वर्तने) से आराधना भी भली प्रकार हो सकती है।
___ अतएव आन्तरिक श्रद्धा से सिद्धान्तोक्त परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन करना चाहिये। क्योंकि - परमेश्वर के प्ररूपित जो शास्त्र हैं, वे परमेश्वर की वाणी स्वरूप ही हैं। इससे उन शास्त्रों में जो धार्मिक आलम्बन बतलाये हैं, वे आचरण करने के योग्य ही हैं। जैनागमों में स्पष्ट लिखा है कि- चार निक्षेप के बिना कोई भी वस्तु नही है; इसलिये परमेश्वर भी चार निक्षेपसम्पन्न है। अतएव स्थापना निक्षेप के अन्तर्गत परमेश्वर की तदाकार मूर्ति भी परमेश्वर के समान ही है। जिस प्रकार परमेश्वर सब प्राणियों के हितकर्ता हैं उसी तरह उनकी प्रतिमा (मूर्ति) भी अक्षय सुख दायिका है। शास्त्रकारोंने चारों निक्षेपों को समान माना है, उनमें एक को मानना
और दूसरे को नहीं मानना मिथ्यात्व है। जिस तरह अलंकार सहित निर्जीव स्त्रियों का चित्र मनुष्यों के हृदय में विकार पैदा करता है, उसी प्रकार शान्त स्वरूप परमेश्वर की मूर्ति मनुष्य मात्र के हृदयभवन में वैराग्य वासना पैदा कर देती है और भले प्रकार वंदन पूजन करने से संपूर्ण गुणवान् बना देती है। मूर्ति का अवलम्बन शास्त्रोक्त होने से उसका सेवन व नमस्कार करना योग्य है। वास्तव में उपचरितनयानुसार परमेश्वर के विद्यमान न रहते भी उनकी तदाकार प्रशान्तस्वरूप मूर्ति को परमेश्वर के समान ही मानना निर्दोष मालूम होता है। इससे उनकी वन्दन-पूजन-रूप आज्ञा के आराधन करने से मानसिक भावना शुद्ध होती है, और शुद्ध भावना से शुभ फल प्राप्त होता है।