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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः । यमूलं, ज्वालसंग जन समरकायं ॥ रयणायरतुझं ख खु, ता सवं सुंदरं तमि ॥ २१ ॥ वोबिन्ने मूलसुए, बिंउपमामि संपइ धरते ॥ आयरणा नवर, परम बो सबकयेसु ॥ २२ ॥ जणियंच ॥ बहुसुय कमाणुप त्ता, आयरणा धर सुत्त विरदेवि ॥ विनाए विपई वे, नब दिई सुदिहीहि ॥ २३ ॥ जीवियपुवं जीव इ, जीविस्स जेण धम्मिय जमि ॥ जीयंति ते ण जन्नर, आयरणा समय कुसलेहिं ।। २४ ॥ तह्मा अनाय मूला, हिंसारहिया सुजाण जणणीय ॥ सूरि परं परपत्ता, सुत्तवपमाण मायरणा ॥ २५ ॥
व्याख्याः-तिस चैत्यवंदना करनेके जिन्नप्रकारका विधिनेद कितनेक तो सूत्रानुसार जाने जाते है,
और कितनेक संविन गीतार्थोकी आचरणासें जाने जाते है, अरु कितनेक पूर्वोक्त दोनोसें जाने जाते है, यह तीन प्रकारसें मैं चैत्यबंदनाका स्वरूप कहताहूं ।। १५॥
शिष्य पूछता है के, हे नगवन् सूत्रकी वार्ताही कहनी युक्त है, क्यों तुम वंदनाके अधिकारमें था चरणाकी सहायता लेतेहो ॥१६॥
गुरू कहते हैं हे शिष्य सूत्र में चैत्यवंदनाका वि
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