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१०० चतुर्थस्तुतिनिर्णयः । धर्मघोषसूरि तथा तिनकी अवजिन्न परंपरासें च लती है, तिसकों बोडकें स्वकपोलकल्पित समाचा रीकों सुधर्मगन्डकी समाचारी कहनी यहनी उत्तम जनोके लक्षण नही है ॥
नला.और जिनकों अपने पट्टावलीमें नाम लिखक र अपना बडे गुरु करके मानना, फेर तिनोकीही स माचारीको जब जूठी माननी तबतो गुरुनी जूते सिद हुवे ? जब रत्नविजयजी धनावजयजीका गुरु जूते थे तबतो इन दोनोकी क्या गति होवेगी ?
तथा नवांगी वृत्तिकार जो श्रीअजयदेवसरिजी तिनके शिष्य श्रीजिनवल्लनसूरिजीने रची दुइ समा चारीका पाठ लिखते है ॥ पुण पणवीसस्सासं, न स्सग्गं करे पारए विहिणा ॥ तो सयल कुसल कि रिया, फलाणसिक्षाणं पढ थयं ॥१४॥ अह सुय स मिदि हेनं, सुयदेवीए कर उस्सग्गं ॥ चिंते नमुक्का रं, सुगाइ देश तिए थुइ ॥ १५ ॥ एवं खित्तसुरीए, न स्सग्गं करे सुण दे थुई। पढिकण पंचमंगल, मुव विसइ पमऊ संमासे ॥ १६ ॥ इत्यादि ॥
जाषा ॥ श्रीजिनवल्लन सूरि विरचित समाचारि में प्रथम पडिक्कमणेमें चार थुइसें चैत्यवंदना करनी
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