Book Title: Chaturthstuti Nirnay
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 179
________________ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १५७ पूया ॥ अञ्चंतसञ्चवयणा, सिवगगमणा जयंति जिणा ॥१॥ इति अर्हत्प्रणीतधर्मवों यथा । वन पयासणसूरो, अश्सयरयणाणसायरो जयई ॥ स वजयजीवबंधुर, बंधूद विहोइ जिणधम्मो ॥ २ ॥ आचार्यवर्णवादो यथा। तेसि नमो तेसि नमो, जावेण पुणो ।व तेसि चेव नमो ॥ अणुवकयपरहियरया, जे नाणं देति नवाणं ॥ ३ ॥ चतुर्वर्णश्रमणसंघवर्णो यथा । एयंमि पूश्यंमि, नबि तय जं न पूश्य होई ॥ नवणेवि पूयणिजो, न गुणी संघान जं अन्नो ॥१॥ देववर्णवादो यथा। देवाण अहो सील, विसयविस मोहिया वि जिणनवणे ॥ अबरसाहिपि समं, हासा ई जेण नकरंतित्ति ॥ १ ॥ इस ताणांगके पातमें प्रथम पाठके पांचमे स्थान में लिखा है कि देवतायोंके जो अवर्णवाद बोले सो उर्लनबोधि पणेका कर्म उपार्जन करे. तिसकी टिकाकी नाषा यहां कहते है. तथा (विपक्कं ) अतिशय करके पर्यंतकों प्राप्त दूधा है तप और ब्रह्मचर्य जवां तरमें जिनका अथवा (विपक्कं के०) उदय प्राप्त हूवा है तप और ब्रह्मचर्यरूप हेतुसें देवताका आज कादि कर्म जिनके, तिन देवतायोंका अवर्णवाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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