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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १५ लदोष है अन्यत्र करतेनी है. इस वास्ते देवतायोका अवर्णवाद बोलना युक्त नही है. ___ अब तिन देवतायोंके गुणग्राम करे तो सुलन बोधि होवे जैसेके देवतायोंका कैसा गुन आश्चर्य कारी शील है, विषयके वश विमोहित जिनका मन है, तोनी जिननवनमे अपत्सरा देवाङ्गनायोंके साथ हास्यादिक नही करते है, इत्यादिक गुण बोले तो सुलनबोधिपणेका कर्म नपार्जन करे ।
इस वास्ते जो कोश, जैनसिद्धांतके रहस्यका अजाण होकर जोले श्रावकोंके बागें, सम्यकदृष्टी जो शासनदेवता अरु श्रुतदेवतादिक है, तिनकी निंदा करके तिनोका कायोत्सर्ग करणा और शुश कहनी तिसका निषेध करता है और यह कृत कर
से उनकों दूर रखता है, सो जीव दुलनबोधि होनेका कर्म नपार्जन करता है ॥ __ तथा श्रीयावश्यकचार्सिमें दशपूर्वधारी श्रीवज स्वामीजीने देवदेवताका कायोत्सर्ग करा ऐसा लेख है, वो पाठ नपर लिख आए है तिसमें जेकर को मुग्ध जीव ऐसा कहे के श्रीवजस्वामीजीने तो एकही वार कायोत्सर्ग कराथा, परंतु प्रतिदिन
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