Book Title: Chaturthstuti Nirnay
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 195
________________ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १७३ कमसें चौवीस धुश्योंमें इन देवतायोंकी स्तवना करी है. सो ग्रंथ गौरवताके जयसें सर्व थुश्यां तो यहां नही लिखते है, जेकर किसीकों देखनी होवे तो ग्रंथ मेरे पास है सो पाकर देख लेनी. तथापि तिनमेसें बावीशमें श्रीनेमिनाथके संबंधकी चार शुश्यां यहां लिख देते हैं. तथाच तत्पातः॥ चिरपरिचितलमी प्रोन्यसिौरतारा, दमरसदृशमा वर्जितां देहि नेमे ॥ नवजलनिधिमजाऊंतुनिर्व्याजबंधो दमरसह शमा वर्जितां देहि नेमे ॥ ७ ॥ विदधदिह यदाझा निर्वतौ शं मणीनां सुखनिरतनुतानोनुत्तमास्ते महां तः॥ ददतु विपुलनशं शग जिनेंशः श्रियं स्वः सुख निरतनुतानोनुत्तमास्ते महांतः ॥ ७६ ॥ कृतसमु तिबलर्दिध्वस्तरुगमृत्युदोष परममृतसमानमानसं पा तकांतं ॥ प्रतिदृढरुचि कृत्वा शासनं जैनचंई परममृ तसमानं मानसं पातकांतं ॥ ७७ ॥ जिनवचनक तास्था संश्रिता कम्रमानं, समुदित सुमनस्क दिव्यसौ दामनीरुक् ॥ दिशतु सततमंबा नूतिपुष्पात्मकं नः नमुदितसुमनस्कदिव्यसौदामनीरुक् ॥ ७ ॥ तथा श्रीजिनेश्वरसूरिका शिष्य और नवांगी वृत्ति कारक श्रीअनयदेव सूरिजीका गुरु नाइ, संसाराव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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