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१६४ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः । मंगल कहे है, और यहां अनुष्ठानरूप धर्मका प्रा रंज होनेसें तिस धर्मकों पांचमा अनुष्ठान कहनमें दोष नही है. तथा सम्यग् सो अविपरीत दृष्टी त त्त्वार्थश्रज्ञानरूप वो है जिनोकों सो सम्यग्दृष्टी देवता यद, अंबा, ब्रह्मशांति, शासनदेवतादिक जा नना. वो क्या करे सो कहते है. ___ देवो क्या देवे ! समाधि और बोधि तहां समाधि दो प्रकारको है, एक इव्यसमाधि, दूसरी जावस माधि तिसमे इव्यसमाधि यह है कि जिन इव्योंका परस्पर अविरोधिपणा है जैसें दधी और गुड, तथा सक्कर ( मिसरी) और दूध, स्नेहवंत नाइ
और मित्र, मलोत्सर्ग करके मूतना इत्यादिका अ विरोध है, और नावसमाधि जो है सो रागशेषर हितकों, स्नेहादिसें अनाकूलकों, संयोग, वियोग क रके अविधुरकों, हर्षविषाद रहितकों, शरत्कालके सरोवरकी तरें निर्मलमनवाले ऐसे जो साधु वा श्रावक है तिनकों होती है यह समाधिही सर्व धर्मोका मूल है. जैसें वृदका मूल स्कंध है, बोटी साखायोंका मूल बडी शाखायों है, फलोंका मूल फूल है, अंकूरका मूल बीज है, बीजका मूल सुनूमि
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