________________
चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ११ए वया, कास्सग्ग नवकार चतुरनर ॥ ७ ॥ परी०॥ देत्र देवता कानस्सग्ग श्म करो, अवग्रह याचन हेत ॥ चतुरनर ॥ पंच मंगल कही पूंजी संमासग, मुहपत्ति वंदन देत ॥ चतुरनर ॥ ए॥ परी० ॥
इस उपरके पाठमें देवसि पडिक्कमणा करतां प्र थम बारा अधिकारसहित चैत्यवंदना करनी कही है. तिसमें चोथा कायोत्सर्ग वेयावञ्चगराणंका कर णा तिसकी घुइ कहनी कही है ॥ तथा दूसरे पाठ में, श्रुतदेवता और देवदेवताका कायोत्सर्ग करणा कहा है.इसी तरें राप्रतिक्रमणेके अंतमें चार थुश्की चैत्यवंदना करनी कही है। ___ यह श्रीयशोविजयजी उपाध्यायका पंमितत्त्व जो था सो आज तक सब जैनमति साधु श्रावकों में प्रसिद है मात्र जिनके रचे दवे ग्रंथोंकों बाचने सेंही तो शंका करने वाले वादी प्रतिवादीयोंका म द दूर होजाता है, यह पंमितने सेंकडो ग्रंथोंकी रचना करी है तिसमें कोश्नी ग्रंथके बिच कोश्नी शंकित बात दिखने में नही आई है, सब शंकायों का समाधान करके रचना करी है. यह बात को जी समजवान जैनीसें नामंजूर नही होती है.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org