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१२० चतुर्थस्तुतिनिर्णयः।
ऐसे ऐसे महापंमितोने जब चार शुश्की चैत्यवंदना और श्रुतदेवता देवदेवताका कायोस्सर्ग प्रतिक्रम ऐमें करना लिखा है, तो फेर रत्नविजयजी अरु धन विजयजीकों पूर्वाचार्योंके मतसें विरुक्ष तीन थुश्के पं थ चलानेमें कुबनो लक्जा नही आती होवेगी? वे अपने मनमें ऐसे विचार नही करते होवेगेकि ? ह मतो पूर्वाचार्योंकी अपेक्षासें बहुत तुल बुधिवाले हैं. तो फेर पूर्वाचार्योंके परंपरासें चले आए मार्ग की उबापना करके कौनसी गतिमें जावेंगे. थोडी सी जिंदगीवास्ते वृथा अनिमान पूर्ण होके निःप्रयो जन तीन थुका कदाग्रह पकडके श्रीसंघमें बेद ने द करके काहेकों महामोहनीय कर्मका उत्कृष्ट बंध बांधना चाहीयें ? हमारा अभिप्राय मुजब इनोके हृदयमें यह बिचार निश्चेसेंही नही आता होवेगा. जेकर आता होवे, तो फेर पूर्वाचार्योंके रचे हूए से कडों ग्रंथोंरूप दीपोकी माला हाथमें लेकर काहेकों तीन शुरूप कदायहके खाडे में पडनेकी ना रख ते है? यह देखनेसें जैसा सिक होता हैके श्नोकों यह बिचार नही आता है. __ यह विचारतो अपनपाति सम्यग् दृष्टी, नवजी
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