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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। करणे योग्य वैयावृत्त्यादि कृत्योंके प्रमादादिसें तिनके करणेमें सिथिल दूकों प्रवृत्त्य करणेवास्ते, और उद्यमवंतोंकी स्थिरताके वास्ते, तिनके जनावने वास्ते, अथवा प्रवचनकी प्रनावनादि हितकार्यमें प्रेरणार्थे कायोत्सर्ग चरम होता है. यह पूर्वोक्त नि मित्त प्रयोजन फल है, यह चैत्यवंदनका तात्पर्यार्थ है. ___ यहां यद्यपि वैयावृत्त्यकरादि देवता तिनके स्म रणाद्यर्थे क्रियमाण कायोत्सर्ग वे नही जानते है, तोनी तिन विषयिक कायोत्सर्ग करणेसें वसुदेव हिं मयुक्त कायोत्सर्ग करनेवाले श्रीगुप्तश्रेष्ठीकी तरें विघ्नोपशमादिकोमें गुनसिदि होतीही है. आप्तका जो कहना है सो व्यनिचारी नही है. इस वास्ते जैसे थंननी विद्याकों बाप्तोपदेशसें थंननादि कर्ममें प्रयुं ज्या श्ष्टफलकी सिदि तिन विद्याकी अधिष्ठाताके विना जानेनी होती है. __चूसमें कहा है. तिन वैयावृत्त्यकरादिकोंके वि ना जाण्यानी कायोत्सर्गका फल विघ्नजय पुण्यवं धादिक होते है.संतताएपत्तिः ॥जनाता खबर देता है. यही कायोत्सर्गप्रवर्तक वेयावच्चगराणं इत्यादि सूत्र अन्यथा मनोवांनित सिक्ष्यादिमें प्रवर्तक न हो
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