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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
योत्सर्ग निर्मुक्तावपि ॥ चाजम्मा सिश्रवरिसे, उस्सग्गो खित्त देवचाए ॥ परिकय सिद्धसुराए, करेंति चनमा सिए वेगे ॥ १ ॥ बृहद्भाष्येपि । पारि कावस्सग्गो, परि मिठीणं च कयनमुक्कारो ॥ वेयावच्चगराएं, दिऊ थुई जरकपमुहाणं ॥ १४४४ प्रकरण कृत श्रीहरिन सूर योऽप्याहुः ललित विस्तरायां चतुर्थी स्तुतिर्वैयावञ्चग रामिति । तदेवं प्रार्थनाकरणेऽपि न काचिदयुक्तिरिति सप्तचत्वारिंशगाथार्थः ॥ ४७ ॥
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जाषा ॥ तथा सम्यकदृष्टि श्री अरिहंतके पछी दे वता और देवी जो है, देवता धरणीं अंबिका दि यह देव चित्त समाधि चित्तका स्वस्थ पणा द्यो, क्योंकि समाधिही सर्व धर्मीका मूल है. जैसे शाखा योंका ? फूल, फलका, बीज अंकुरका मूल, स्कंध है तैसें यहनी जान लेना चित्तके स्वास्थ्य विना सर्वा नुष्ठान कष्टतुल्य है. वैधूर्यता का निरोध करणा, उस को समाधि कहना सो वैधूर्यताका हेतु जो उपसर्ग है तिसके निवारण करणेसें होती है इस वास्ते तिस की प्रार्थना है.
तथा बोधि जो है सो परलोकमें जिनधर्मकी प्रा प्तिका नाम है. कहा जी है कि मैं परजव में श्रावकके घ
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