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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
के यह हमारे साथ धूर्तता करता है वा नहीं क रता है ? यह बात कुछ बनिये समजते नही.
परंतु रत्नविजयजीकूं साधु नाम धरायकें ऐसे ऐसे बल पटके काम करणे उचित नहीं है. हमा री तो यह परम मित्रतासें शिक्षा है, मानना न मा नना तो रत्नविजयजी के अधीन है.
तथा रत्नविजयजीकूं इस संघाचारवृत्तिका तात्प र्यार्थिनी मालुम नही हूया होगा नही तो अपने म तकी हानिकारक चिट्ठी इस पुस्तकमें काहेकों ल गवाता ?
तथा आवश्यककी अर्थ दीपिकाका पाठ लिखते है ॥ तथा सम्यग्दृष्टोऽर्हत्पादिका देवा देव्यश्वेत्येक शेषादेवा धरणीं बिकायादयो ददतु प्रयवंतु समा धिं चित्तस्वास्थ्यं समाधिर्हि मूलं सर्वधर्माणां स्कंध 5 व शाखानां शाखा वा पुष्पं वा फलस्य, बीजं वांकुर स्य चित्तस्वास्थ्यं विना विशिष्टानुष्ठानस्यापि कष्टानुप्रा यत्वात् समाधिव्याधिनिर्विधुर्यता तन्निरोधश्च तदेतुको पसर्गनिवारणेन स्यादिति तत्प्रार्थनाबोधिं परलोके जि नधर्मप्राप्तिः यतः सावयघरंमिवरहुआ चेडने नाण दंसणसमे ॥ मित्तमोदि अमई, माराया चक्कवट्ट ।
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