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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १५ जेकर अर्वाचीन शब्दका अर्थ अन्यथा करीयें तो श्रीसिवसेनाचार्यकृत प्रवचनसारोवारकी टीका के साथ विरोध होता है, क्योंके श्रीसिक्ष्सेनाचार्य चौथी थुश् आचरणासें करणी कही है. _तथा कोइ थैसे कहेके ललितविस्तरा १४४४ ग्रं थोंके करनेवाले श्रीहरिनश्सरिजीकी करी दूर न ही है. किंतु अन्य किसी नवीन हरिजसरिकी रचि त है, यह कहनाजी महामिथ्या है, क्योंके पंचाश ककी टीकामें श्रीअनयदेवसूरिजी लिखते हैं के, जो ग्रंथ श्रीहरिजइसरिजीका करा दूधा है, तिसके अंतमें प्रायें विरह शब्द है,। पंचाशक पातः ॥ इह च विरह इति । सितांबर श्रीहरिनशचार्यस्य रुतेरंक शत ॥ यह विरह अंक ललितविस्तराके अंतमें है. और घाकनी महत्तराके पुत्र श्रीहरिनइसरिने यह ललि तविस्तरा वृत्ति रची है, जैसानी पाठ है तो फेर ललितविस्तरा प्राचीन दरिनश्व रिकत नही, जैसा वचन उन्मत्त विना अन्य कोई कह सक्ता नही है. - तथा श्रीनपदेशपदकी टीकामें श्रीमुनिचंइसुरिजी पैसा लिखते है ॥ तत्र मार्गो ललितविस्तराया मनेनैव शास्त्रकतेबंलक्षणो न्यरूपि मग्गदयारामि
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