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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
खा है के " श्रीवीरनिर्वाणात् वर्षसहस्त्रे पूर्वश्रुतं व्य वन्निं ॥ श्रीहरिन सूरयस्तदनु पंचपंचाशता वर्षेः दिवं प्राप्ताः तद्यंयकर कालाच्चाचरणायाः पूर्वमेव संजवात् श्रुतदेवता दिकायोत्सर्गः पूर्वधरकालेपि संज वति स्मेति ॥
यस्याषा || जगवंत श्रीमहावीरजीके निर्वाण सें हजार वर्ष व्यतीत हुए पूर्वश्रुतका व्यववेद हूया, तदपीछे पचपन (५५) वर्ष वीते श्रीहरिन सूरिजी स्वर्ग प्राप्त हुए, वो श्रीहरिन सूरिजी के ग्रंथ करण कालसें पहिलाही याचरणा चलती थी इस वास्ते श्रुतदेवतादिकका कायोत्सर्ग पूर्वधरोंके काल मेंजी संभवथा ॥
ब विचारणा चाहिये के पूर्वधरोंकी अंगीकार करी हूइ श्राचरणाका निषेध करणेवाला दीर्घ संसा री विना अन्य कौन हो सक्ता है ? वैसे चौथी चु इजी हरिजसूरिजी के ग्रंथ करणेसें प्रथमही पूर्वधरों की याचरणासें चलती थी क्योंके हरिजसूरिकृत ललितविस्तरामें चौथी थुइका पाठ है, सो पाठ श्रागें लिखेंगे इसवास्ते अर्वाचीन कहो, चाहे याचरणा कहो, चाहे जीत कहो.
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