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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
सर्गः कार्यः एक नमस्कार चिंतनं कृत्वा तदीयां स्तु तिं ददाति परेण दीयमानां वा शृणोति स्तुत्यंते पंच मंगलं नमस्कारमनिधायोपविशतीति गाथार्थः ॥ ३७ ॥
इस पाठ में श्रुतदेवताका और क्षेत्र देवताका कायो त्सर्ग करनां कहा है, और इन दोनोंकी चुइ कहनी कही है श्रीदेवसूरिजी जिनोनें सिद्धराज जयसिंहकी सनामें कुमुदचंद दिगंबरकूं जीत्या जिनके खागें सा ढें तीनको ग्रंथका कर्त्ता श्रीहेमचंद सूरि बाजक पु त्रकी तरें बैठे थे. और जिन श्रीदेवसूरिजीने चौरासी हजार श्लोकप्रमाण स्याद्वादरत्नाकर ग्रंथ रचा था ति नके शिष्य श्रीरत्नप्रसूरिजीने रत्नाकरावतारिका लघु वृत्ति रची, जिनके वचनोकों जैनमतमें कोनी विधा न् प्रमाणिक नही कही शक्ता है, और यह श्रीदे वसूरिजी के गुरु श्रीमुनिचं सूरि थे तिने जावजीव यांचाम्ल तप करा है, जिनकी रची योगबिंदु, धर्म बिंड, उपदेशपद प्रमुख अनेक ग्रंथोकी टीका है, ति नोने ललित विस्तराकी पंजिकामें चार थुइसें चैत्यवंद ना करनी कही है, जैसे महान्पुरुषोके कथन करेकी जेकर रत्नविजयजी और धनविजयजीकूं प्रतीति न ही तो इन स्तोक मात्र या तहा पठन करे हूए रत्न
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